बे-तख़ल्लुस
manu
Monday, December 8, 2008
.............हाँ अब ठीक है....तो जैसे हमारा बच्चा कभी घर में नहीं नज़र आता तो हम बराबर वाले मकान में पूछ लेते हैं ....वहाँ नहीं तो गली में तलाश लेते हैं ....थोड़ा ज़्यादा बड़ा हुआ तो मुहल्ले में पता कर लिया.....मिल ही जाता है....है न...? सीधे ही दूसरे शहर में नहीं जाते ...अगर वहाँ मिल भी जाए तो साथ में कई संशय जन्म ले लेते हैं...अब के मुझे ठीक समझना ....मेरी प्रार्थना है के अपनी भाषा का कोई अर्थ ढूँढने के लिए पड़ोस की भाषा में जाएँ...क्यूंकि यहाँ तो अपना घर सा है ...आना जाना लगा रहता है ....कभी इस घर का बच्चा उस में तो कभी उस घर का बच्चा इस में .........कैसे भी संशय की कोई गुंजाईश नहीं.......अब हिंद युग्म पर टाईपिंग करने में मज़ा आ रहा है...दूसरे पैर कितनी असुविधा लग रही थी .....क्यों न हो अपना घर सा है...है ना..?अगर आप में से कोई साहब इधर आ जाएँ तो सहमती या असहमति ज़रूर लिखियेगा...बाकी मैं कोशिश करता हूँ आपको बुलाने की...............मनु""घर पे आते ही मेरा साया मुझ से यूँ लिपटा,अलग शहर में था दिन भर अलग अलग सा रहा.""
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2 comments:
आपके तर्ज ने मेरा ज्ञान जरूर बढ़ा दिया मनु जी.. आपकी शायरी भी गजब की है...
हिन्दयुग्म को अपना समझते हैं.. इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है... हिन्दयुग्म भी आपको अपना ही समझता है...
"ajab wo raunaq.e.duniya, bhataknaa
hai, bikharnaa bhi , muhaafiz ghar ki diwaareiN, mujhe jo thaam leti haiN..."
aapki umda shaairi ka intzaar rehta hai.
---MUFLIS---
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