बे-तख़ल्लुस

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'बेतख़ल्लुस' हूं मुझे कोई भी अपना लेगा

manu

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Wednesday, December 31, 2008

" मांगने वालियां"

हम दोनों करोल बाग़ मैट्रो स्टेशन से निकले और अजमल खान रोड पर  आ गए | बाहर निकलते ही उसने मैट्रो व्यवस्था पर झींकते हुए सिगरेट सुलगाई "ये भी कोई सफर हुआ ? बस दम सा घोट के बैठे रहो | बेकार है ये मैट्रो ...!! ...एकदम बस.. !!" कहते हुए पहला भरपूर कश खींचकर, फेफेडों का धुँआ मुंह उठाकर ऊपर छोड़ने लगा | एक यही तरीका था उसका किसी भी अच्छे सिस्टम के ख़िलाफ़ अभिव्यक्ति का | इधर जाने कहाँ से मांगने वालियों की एक छोटी सी टोली हमारे सामने आ खड़ी हुई थी | "ऐ बाबू..!!" "कुछ गरीब के बच्चे को भी दे जा बाबू..?" "भूखा है बाबू..." सीने से नंग धडंग बच्चे चिपकाए अलग अलग कातर स्वरों में बच्चे के लिए कुछ भी दे देने की मार्मिक पुकार थी | मैंने अपनी जेब टटोलनी चाही तो उसने कहा "छोड़ न यार ...! तू भी कहाँ चक्कर में पड़ रहा है..?" फ़िर आदतन वो उन मांगने वालियों को दुत्कारने लगा | ये भी शायद इस डेली पैसेंजर से वाकिफ थीं | मेरे साथ उसे देखकर आसानी से एक तरफ़ हो गयीं | 
"तू भी बस खामखा में न धर्मात्मा बनता है"  अगला कश कुछ हल्का खींचते हुए उसने ऐसे ढंग से कहा मानो फेफडों की तलब कुछ कम हो गयी हो | 
"अरे यार ,अगर दो चार रूपये दे देता तो कौन सी आफत आ जाती ?" 
"दो चार की बात नहीं है, बस मुझे भीख देना ही पसंद नहीं है "
"क्यों, इसमें क्या बुराई है..?"
"तो चल तू ही बता के अच्छाई भी क्या है"
उसके धुंए से बचता हुआ मैं जवाब सोच ही रहा था के फेफड़ा खाली होते ही वो बोला "अच्छा चल ये बता के इन मांगने वालियों की कितनी उम्र होगी ?" 
"ये कैसा बेहूदा सवाल है ?" 
"फ़िर भी तू बता तो , चल यूँ ही गैस कर "
"ऐसे क्या गैस करूं....?  ये भी कोई तुक है....? और ये तो ३०-३५ साल की भी हैं और कमती बढती भी हैं ..सबकी एक सी उम्र थोड़े है.?"
"और वो काली कुचेली चद्दर वाली....?"
"हां,उसकी उम्र तो खासी है.....होगी ६०-६५ के लपेटे में "
"इसको मैं पिछले सत्रह सालों से ऐसे ही देख रहा हूँ "
"हाँ, तो इसमें कौन सी बड़ी बात है...? बहुत से लोग होते हैं जिनकी झुर्र्रियाँ पूरी होने के बाद शकल में कोई बदलाव नहीं आता....ये भी कोई बात हुई कोई नयी बात कर"
"इसके कलेजे से चिपका ये बच्चा देखा है "
ये वो ही साल डेढ़ साल का मासूम था जिसके दूध के लिए मैंने पैसे देने चाहे थे और अब सूखे हाडों में से जीवन धारा निचोड़ने की कोशिश कर रहा था अब तक मैं भी अपने इस दोस्त से दुखी हो चुका था "हाँ ,दीख रहा है....!!" खिन्न मन से मैंने जवाब दिया |
"सत्रह सालों से मैं इसे भी ऐसे ही देख रहा हूँ"  कहते हुए उसने सिगरेट ख़त्म कर सड़क पर फेंक दी | 
अब के मेरा मुंह खुला रह गया और सड़क पर पड़ी सिगरेट कलेजे में सुलगने लगी| 

Monday, December 29, 2008

रवानी

|| कौन सी ज़ंजीर पहना दूँ, रवानी को बता,
दरिया हूँ आख़िर, भला मैं कैसे बहना छोड़ दूँ ||

|| बेज़ा ना तोहमत लगा, तर्जे बयानी पर मेरी,
बात कुछ ऐसी नही कहता, के कहना छोड़ दूँ ||

Friday, December 26, 2008

रंग

कल आफिस में लंच करते समय उन्होंने कहा था....
"मनु यार कम से कम हाथ तो धो ले।"
"धुले तो हैं " मैंने कहा पर उँगलियों पर हल्का गुलाबी रंग, और कहीं एक शोख आसमानी रंग नज़र आ रहा था
"तो ये क्या है....?"
"ये तो रंग हैं ,हाथ तो धो चुका हूँ पर ये नहीं छूट रहे.....आप ही बताओ क्या करुँ "
"दुबारा हाथ गीले कर के स्लैब के उलटी तरफ़ खुरदरी जगह पर जोर से रगड़ ले, सब छूट जाएगा "
मैंने उनके कहे पर अमल करना शुरू किया........पर जाने क्यूं इन शोख रंगों को जोर से रगड़ने की हिम्मत हाथों को ना हुई, कुछ देर वो मेरा इंतज़ार देख के बोले " एक मिनट का काम है, बस,, पर तू ही नहीं चाहता...."

""जी शायद मैं ही नहीं चाहता, आप चाहें तो मेरे बिना अकेले लंच कर सकते हैं ......."

Saturday, December 20, 2008

ग़ज़ल

|| छूटा ही ना कुछ साथ , कभी हम से ग़मों का,
होने को तो यूँ दुनिया में उस्ताद बहुत थे ||

|| इतनी तो ना रुसवा थी ,ये तहरीर-ऐ-ज़हालत,
हाँ ,दाना भी थे कुछ, मगर बेदाद बहुत थे ||

|| हम तेरी मसीहाई पे , तोहमत नहीं धरते,
कुछ ज़ख्म थे ऐसे भी, जो नाशाद बहुत थे ||

|| वीरान ही देखीं वहाँ, बंगलों की कतारें,
यूँ छोटे बड़े घर यहाँ , आबाद बहुत थे ||

|| ये फाका मस्तियों का हुनर , तू भी कुछ समझ,
इस इल्म के माहिर , तेरे अजदाद बहुत थे ||

|| चट्टान काट कर भी , ना शीरी को पा सका,
जतनो जुगत लगाये, वाँ फरहाद बहुत थे ||
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बयान-ऐ-मुफलिस
हम ही न समझ पाये ज़माने का तक़ाजा
वरना तो यहाँ जरिया-ऐ-इमदाद बहुत थे

Tuesday, December 16, 2008

 क्या ही बेहतर हो , ये अफ़साने यूँ ही चलते रहें, एक संग कहता रहे , बाकी के सब सुनते रहें..!!

Friday, December 12, 2008


आज किसी ने भगवान् बुद्ध की मूर्ती के दर्शन करा दिए हैं सवेरे सवेरे तो सोचा.......

क्यूं ढूंढता हूँ अंधेरों में रूहे ताबानी ,
दर्द से मैं भी तो घबरा के भाग सकता हूँ..
पर मैं घर बार को ठुकरा के जी नहीं सकता,
मैं भी गौतम हूँ मगर और ही तरह का हूँ...

Monday, December 8, 2008

मैं तर्ज़ की बात कर रहा था ....मैं ख़ुद को अपनी जगह ठीक पा रहा था और मुफलिस साहब के बयान से भी संतुष्ट था....हम लोग कहते हैं न के फलां गीत की तर्ज़ कैसी है ...है ना....? तो मैंने अपनी अकल का इस्तेमाल करने के बजाय बाहर खोज बीन करना ठीक समझा ..........और पाया के तर्ज़ उभयलिंगी शब्द है .......दोनों तरह से इस्तेमाल हो सकता है.......लेकिन कहीं कुछ चूक रह गए थी ...फैशन शब्द ठीक था ...........पर ये शब्द शैली ...पद्धति ....से होता हुआ फैशन बना था........तो थोड़ा दूर हो गया था, मेरे पोस्टिंग वाले फॉण्ट में कुछ गड़बड़ है शायद ....बाकी का हिन्दयुग्म वाले फॉण्ट से लिखता हूँ...........जाइयेगा नहीं....................
.............हाँ अब ठीक है....तो जैसे हमारा बच्चा कभी घर में नहीं नज़र आता तो हम बराबर वाले मकान में पूछ लेते हैं ....वहाँ नहीं तो गली में तलाश लेते हैं ....थोड़ा ज़्यादा बड़ा हुआ तो मुहल्ले में पता कर लिया.....मिल ही जाता है....है न...? सीधे ही दूसरे शहर में नहीं जाते ...अगर वहाँ मिल भी जाए तो साथ में कई संशय जन्म ले लेते हैं...अब के मुझे ठीक समझना ....मेरी प्रार्थना है के अपनी भाषा का कोई अर्थ ढूँढने के लिए पड़ोस की भाषा में जाएँ...क्यूंकि यहाँ तो अपना घर सा है ...आना जाना लगा रहता है ....कभी इस घर का बच्चा उस में तो कभी उस घर का बच्चा इस में .........कैसे भी संशय की कोई गुंजाईश नहीं.......अब हिंद युग्म पर टाईपिंग करने में मज़ा आ रहा है...दूसरे पैर कितनी असुविधा लग रही थी .....क्यों न हो अपना घर सा है...है ना..?अगर आप में से कोई साहब इधर आ जाएँ तो सहमती या असहमति ज़रूर लिखियेगा...बाकी मैं कोशिश करता हूँ आपको बुलाने की...............मनु""घर पे आते ही मेरा साया मुझ से यूँ लिपटा,अलग शहर में था दिन भर अलग अलग सा रहा.""

Friday, December 5, 2008

""कितने रदीफ़-ओ-काफिये, कितने ज़वां हुरूफ़,
कब से हैं मुन्तज़िर, तेरे अहसान-ऐ-ग़ज़ल के..""

Thursday, December 4, 2008

आज डायरी उलटता पलटता तीन साल पहले पहुँच गया

"वक्त के पाबन्द साकी मयकशों से खौफ खा ,

सरफिरा फिरता है तेरे क़त्ल का सामां लिए ।

बिक चुके हों दहन सारे रहन हो ईमाँ जहाँ ,

मुंसिफी को क्या कहें, खस्ता ऐ जिस्मों जान लिए ।।"

कितना ग़लत फैसला सुनाया गया था .................

Wednesday, December 3, 2008

शायरी और कार्टून ....

एक दिल की मजबूरी , दूजा दिमाग का खेल....

कैसे हो ये मेल......

""शौके तीरंदाजी पूरा हो,लहू भी न बहे...

मरहमी कुछ तीर भी मिलते हैं क्या बाज़ार में""

Tuesday, December 2, 2008

""नज़्म जिन की शान में लिखते हैं हम,

हैं कहाँ पढने की उनको फुरसतें..."