बे-तख़ल्लुस

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'बेतख़ल्लुस' हूं मुझे कोई भी अपना लेगा

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Sunday, September 15, 2013

कल जब अस्पताल में हम वेटिंग-लिस्ट में थे तो एक हाल नजर आया जहां हिंदी में योग और इंग्लिश में YOGA लिखा था, मैं उत्सुकतावश उधर को चल पडा पत्नी के साथ, उधर एक सांवली सलोनी ममतामयी महिला बैठी हुई थी, मैंने झुककर अभिवादन किया और पूछा कि क्या आप योगा-टीचर हैं ? उन्होंने मुस्कुराकर कहा कि हूँ तो , पर अभी खुद एक थेरेपी के लिए आई हुई हूँ सो आपको कुछ बताउंगी नहीं। 
मैंने कहा के थोड़ी दुविधा में हूँ ,बस इतना भर पूछना है कुछ समय से मेरी वाइफ़ के दाहिने घुटने में दर्द है, एलोपैथी में इन्हें बताया है कि चौकड़ी (पालथी) मारकर हरगिज़ ना बैठें, कम से कम आप इतना स्पष्ट कर दीजिये कि यदि पालथी भी मार के न बैठें तो और कैसे बैठें ?

उन्होंने तत्काल अपने बैठने की मुद्रा बदली और सहजता से पालथी मारते हुए कहा कि इन्हें बस पद्मासन नहीं लगाना है और जबरन पालथी नहीं मारनी है। यदि इन्हें सुखासन में बैठने की आदत है और ये बिना तकलीफ के बैठ सकती हैं तो इन्हें बिलकुल बैठने दीजिये चौकड़ी में , जब उकता जाएँ तो पोजीशन बदल सकती हैं।   

मैंने उनके सजेशन को बिना टैग हुए लाइक  किया  और मन की गहराइयों से धन्यवाद कहते हुए चलने लगा तो हाल में एक युवक ने प्रवेश किया जिसे देखते ही उन मैडम जी ने हम मियाँ-बीवी को रोक लिया और कहा " ठहरिये, गुरु जी आ गए हैं । ये आपको ज्यादा सही समझा सकेंगे। 

पत्नी उनके कहने पर,और मैं पत्नी के कहने पर रुक तो गए किन्तु इन नए योग-गुरु से कुछ और जानने का जाने क्यूँ मन नहीं था । शायद हमें भांपकर या यूं ही उस महिला ने उस आगंतुक युवक से पूछा " गुरु जी, इनका एक प्रश्न है ।" 
युवक का उत्तर था "ये जगह बहुत कंजेसटड  इधर कोई क्लास पॉसिबल नहीं है, परसों सुबह आठ बजे दस नम्बर में आने को बोलिए , कुछ हल्का नाश्ता लेकर आयें "

महिला ने फिर कहा कि इन्हें कोई क्लास नहीं करवानी है , इनका एक प्रश्न है केवल । 

गुरु जी :- ''मैंने कहा न की ये बहुत कंजेसटड है, इधर कोई भी बात नहीं हो सकती ''
महिला :-'' गुरु जी, एक बार सुनिए तो प्लीज़, इन्हें गलत गाइड किया गया है ''
लगभग चीखते/खीजते गुरु जी :-'' मैंने कहा न कि  इधर बहुत कंजेसटड है , इधर कोई बात हो ही नहीं सकता है "
मैं लम्बे चौड़े हाल में हम चार लोगों को निहारते हुए निकला ही रहा था कि ममतामयी महिला ने हमें एक बार फिर ठहरने का इशारा करते हुए युवक से फिर गुहार लगाई :- ''गुरु जी सुनिए तो , इन्हें किसी डॉक्टर ने क्या सलाह दी है '' 
अब गुरु जी सीधे पलटकर मेरी और आये और आँखों को तरेरने से बचाते हुए हाथ जोड़ कर बोले "आपने जो भी कहना/पूछना है परसों मंडे को दस नम्बर में आठ बजे आइये …. प्लीज़  …. 
और हाँ  …  कुछ हल्का नाश्ता जरूर करके आइयेगा 


मैं उन्हें मजबूरन थैंक यूं कह के जब चला तो गुरु जी ने फिर  कहा " कुछ हल्का फुल्का सा खाकर जरूर आना "










Saturday, September 7, 2013

मुद्दत बाद आज शाम टी वी  पर न्यूज़ देखने का वक़्त मिला या समझिये के मूड हुआ । समझ नहीं आया के आप सब लोग कैसे झेल जाते हैं इन बुद्धिजीवियों को । 
लगभग हर न्यूज़ चैनल पर प्राइम टाइम पर तकदीर का हाल बताने वाले बाबाओं की फिजूल उपस्थिति के समर्थन में पर एक साहब ने कहा "जब  हर अखबार में राशिफल का कालम आता है तो न्यूज़ चैनलों पर भविष्यवक्ताओं पर आपत्ति क्यूँ हो ?''

कोई इनको समझाए के अखबार में क्या पढ़ना है और क्या नहीं ये हर पाठक के हाथ में होता है, उसे मालूम होता है कि किस पृष्ठ और किस कालम पर अपना ''कीमती-समय'' बर्बाद करना है और किस पर नहीं । और वो इसपर दो मिनट भी बेकार के खर्च करने से बाख सकता है ।  


जबकि यदि मैं सवेरे  ऑफिस भागते हुए जल्दी में आधे घंटे भी जितने खबरी चैनल पलटता हूँ, उन सब पर सितारे देखने वाले काबिज़ रहते हैं । 

ज़रा बताइये तो कि  इन दोनों बातों का आपस में क्या मेल है 


एक और चैनल पर बहस चल रही थी कि क्या बाकि के संत भाई भी कुछ शर्मिन्दा हैं या नहीं ?

सो एक संत जी ने कहा कि ''मैं न तो आसाराम का प्रवक्ता हूँ, न समर्थक, और ना ही विरोधी हूँ। मैं तो केवल कृत्य का विरोधी हूँ, व्यक्ति का नहीं"
………………। 
क्या 'व्यक्ति' के बिना 'कृत्य' होना संभव है। .??? 

    

Sunday, January 27, 2013


फ़िक्र में रोज़ी की जब है मारा मारा आदमी
आदमी को हो भी तो कैसे गवारा आदमी 

जिसने बोला, आदमी का है गुजारा आदमी
आदमी ने उसके मुंह पर दे के मारा आदमी

फितरतन कोई किसी का भी नहीं, पर सब कहें
ये हमारा आदमी है, वो तुम्हारा आदमी

नित नए मजहब में बांटो आदमी को इस क़दर

या बचे मज़हब जहां में, या बेचारा आदमी

आदमी गोया कचौड़ी और मठरी हो गया
थोड़ा सा खस्ता है लेकिन, है करारा आदमी

बात ये भी चाशनी में घोल कर कहनी पड़ी
बातों में ऐसी मिठास, और इतना खारा आदमी ?


आदमी से रोज अंतिम सीख लेता है मगर
आदमी से सीखता है, फिर दोबारा आदमी

माँ के औरतपन के दिन तो जाने कब के लद गए
बाप में अब भी बचा है , ढेर सारा आदमी

'बे तखल्लुस' फ़िक्र है तो आने वाले कल की है
अब तलक तो आदमी का, है सहारा आदमी

Thursday, November 1, 2012

अनन्या ... अंतिम भाग




उस मनुष्य ने स्वप्न में भी ऐसे मंच की कल्पना नही के थी जिस पर वह इस समय था !

सबसे ऊपर तो राजसिंहासन ही था, उस से ठीक नीचे वाला आसन  इस अभागे मनुष्य का था ! उससे नीचे वाले स्थान पर सदा की भांति राज पार्षद विराजमान थे ! और भी नीचे राज्य के विशिष्ट धनवान नागरिक एवं सबसे नीचे केवल नागरिक ! सबसे ऊँचे से ले कर सबसे नीचे वालों की उंगलियाँ नए नए आरोपों से सुसज्जित उस पर उठी हुई थी ! दूरदर्शी समझे जाने वाले राजा को समझ ही नही आ रहा था की उससे ऐसे भूल कैसे हो गयी ! यदि उसके कुछ अनुभवी सभासद न होते तो इस अधर्मी मूर्तिकार ने तो इस देवी के अनिष्टकारी  रूप के साथ ही इस भरे पूरे राज्य को स्वाहा कर देने मै कुछ कसर नहीं रख छोड़ी थी !पांच भुजाओं वाली देवी भला किस प्रकार देवी स्वीकारी जा सकती थी ? चतुर्भुजी देवी के आठ, दस एवं सोलह भुजाओं वाले रूप कम से कम सुने हुए तो थे ! किन्तु अपनी देवी पांच भुजाओं वाली भी हो सकती है ऐसा अनुमान लगाना भी कठिन था !
सबसे अधिक अनुभवी एवं वृद्ध मंत्री ने भी आकाश की और दोनों हाथ उठाकर कहा था की धन्य् हैं इस राज्य के देवता, जिनकी कृपा से इस पापी ने तीन भुजाओं वाली प्रतिमा नही बनायीं ! यदि ऐसा हुआ होता तो एस स्वर्ग तुल्य राज्य को इसी समय सर्वनाश को प्राप्त हो जाना था !
कुछ और भी कलापारखी , सौंदर्य-परखी थे जिनके  अध्ययन कक्षों की पिछले भीतों का सूखा गोबर अब उखाड  दिया गया था ! अतः मनुष्य की ओर उठी हुई उँगलियाँ की संख्या में जहाँ वृद्धि  हुई थी वहां कुछ विनम्र सुझाव भी राजा को प्राप्त हुए थे जिनके फलस्वरूप राजा ने मनुष्य को म्रत्यु दंड देने का अपना प्रथम निर्णय त्याग  दिया था !

                                         उखड़े सूखे गोबर पर उकेरे खट्टे हरेपन की चर्चा अब दबी छिपी सावधानी से ही की जाती थी ! इसी प्रकार की छिपी सावधानी से लगभग हर नागरिक व् पार्षद देवी को धन्यवाद भी देता था कि  अभागे मूर्तिकार को प्राण गंवाने के बदले केवल राज्य से निष्काषित होने का दंड ही मिला ! और इस प्रकार देवी को धन्यवाद् देते समय किसी के भी विचारों में देवी की कोई भी भुजा न आती थी । इन दिनों राज्य का प्रत्येक प्राणी दया, ग्लानी एवं भय से उपजे भावों से त्रस्त लगता था , जबकि इन सब का कारण , वह अभागा मूर्तिकार अब तक इन सब से बहुत दूर किसी दिशा में निकल चुका था 

                                                                      भुजबंद पर लटकता नन्हा पुष्प अब भी उसे देख रहा था                                                               

                                                         


                       ठीक इस समय जब उसके तन को इस श्वेत कमल ने स्पर्श किया ...उसके विचारों में अनन्या की वह तर्जिनी ऊँगली कहीं से आ गई..जिसने उसे अब तक स्पर्श नहीं किया था, बल्कि अपने श्रृंगार को और अधिक बढाने की लालसा में केवल उसे इस पुष्प को तोड़ लाने का आदेश ही दिया था | अवश्य महा यक्षिणी का स्पर्श भी ऐसा ही होगा ... पता नहीं क्यूँ उसे ऐसा आभास हुआ | इस मोहक कमल जैसी ही शांत,सौम्य,श्वेत, कोमल, अटल श्वेत हिम-मूर्ति सी महा यक्षिणी अनन्या..यद्यपि इस पुष्प से ठीक विपरीत रूप-गर्विता एवं निर्मम भी ... इस सरोवर से निकले जाने के पश्चात अधिक से अधिक तीन या चार प्रहर तक ही यह पुष्प महा सुन्दरी के मादक कटि-क्षेत्र को कुछ और सुशोभित कर सकेगा...तत्पश्चात इस पुष्प का यह जीवन-रस समाप्त हो जाएगा | अभी शाश्वत सी जान पड़ रहीं इन पंखुड़ियों का यह जीवित स्पर्श...किसी मृत देह के समान हो जाएगा | ऐसे मृत स्पर्श के पश्चात स्नानादि के अतिरिक्त और भी कई उपाय उसे कंठस्थ कराये गए थे गुरुकुल में ... कुछ प्रार्थनाएं भी तब उसे याद आयीं ..
                        हंह..गुरुकुल....!!
                         लटकती पंखुडियां जहां समाप्त हो रहीं थीं .. ठीक वहीँ से कमल पुष्प के तने का भाग उसने मरोड़ी देकर तोड़ने के लिए पकड तो लिया परन्तु इस समय इस अलौकिक कमल का वह शीतल स्पर्श उसे ऐसा प्रतीत हुआ था मानो उसका हाथ तपते अलाव पर रखा गया हो | बिना उसके आदेश के उसका हाथ वह तना छोडकर उसके माथे पर आ लगा | तने को पकड़ने और इस प्रकार झटके से छोड़ने के कारण ही शायद पुष्प की सबसे निचली सतह में वास करने वाले वे हरे पीले जल-जंतु , जो आकार में उसके गुरुकुल के खट्टे इमली वाले पौधे के इर्द-गिर्द बड़ी ही मौज से टहलने वाले बड़े बड़े लाल मकोडों से कुछ ही छोटे लग रहे थे एक सीधी रेखा में बड़ी हडबडाहट के साथ प्राण-रक्षा हेतु तट की और भाग लिए | मनुष्य जान गया कि यह सब उसके पुष्प को उखाड़ने के प्रयास के कारण हो रहा है..तभी उसकी दृष्टि उस हरे वर्ण के..शायद धानी हरे वर्ण के एकमात्र जीव पर पड़ी ..जो तट की ओर भागते हरे पीले जीवों से एकदम विपरीत दिशा में भाग रहा था | अपने साथियों से टकराता हुआ .वह उस पूरी पंक्ति में पुष्प की ओर भागता जीव उस समय सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण लगा था ..पहले उसे लगा कि संभवतः इस प्राणी के अपने परिवार का कोई सदस्य ही विवश मूर्तिकार द्वारा नव-निर्मित विपदा में घिरा हुआ है.. . किन्तु ध्यान से देखने पर ज्ञात हुआ कि विपरीत दिशा में भागने वाले इस धानी हरे जीव ने एक बार भी अपने बराबर में तट की ओर भागते हरे पीले जीवों को देखने का प्रयत्न नहीं किया था...उसकी दृष्टि में कोई खोज नहीं थी ..किन्तु उसके भागने में एक विचित्रता थी | तट की ओर प्राण बचा कर भागते हरे पीले प्राणियों को तो तट दिख रहा था ..किन्तु इस अलौकिक पुष्प की सबसे निचली सतह की ओर भागते इस धानी आभा लिए जीव को ऐसी आपदा के समय क्या दिख रहा था..???

                          इस समय तक मनुष्य की दोनों आँखों की पुतलियाँ बहुत ऊपर उठ चुकीं थीं ..इतना ऊपर कि  कुछ रहा ही नहीं था कि उसकी दृष्टि किसी वस्तु तक जाती एवं किसी वस्तु पर वापस लौटती | सदा ही अपने सृजन-काल में वह इस प्रकार की अनुभूतियों के संपर्क में आकर ..उन्हें अपने ही द्वारा निर्धारित की गयी सीमाओं की सीमा में से ही छूकर लौट आता था ..किन्तु  आज एक पुष्प का विनाश करते समय न जाने किस अज्ञात के वशीभूत हो इस पूर्ण-अनुभूति तक पहुँचने के लिए उत्सुक हो गया था .. इस अंतिम समय उसके भीतर एक कामना अवश्य उपजी थी कि वह अनन्या से अपना सारा जीवन, अपनी सारी मनोस्थिति कह पाता ..... किन्तु ......
                        जल पूर्णतयः प्राकृतिक ही होता है..चाहे वह यक्ष-प्रदेश महा यक्षिणी अनन्या हेतु बने सरोवर का हो.या .मोक्ष दायिनी गंगा का अथवा गुरुकुल के पिछवाड़े में बहते नाले का ... जल अपना एक कार्य तो वह पूर्णतः प्राकृतिक रूप से ही करता है. .मूर्तिकार का मृत शरीर इस समय महा सुन्दरी अनन्या की मृतप्राय निश्चल दृष्टि एवं कमल पुष्प के जीवंत निश्छल स्पर्श के मध्य सरोवर की सतह  पर  बिना किसी प्रयास के पड़ा था ..किन्तु उसकी मोक्ष को प्राप्त होती आत्मा के शांत होते ह्रदय में जाने  कैसे वह एक अंतिम धडकन ठीक वैसा ही वातावरण बना रही थी जैसा उसके हाथों ने इस अलौकिक पुष्प को तोड़ते समय बना दिया था 


             पुष्प की ओर भागता गुरुकुल में पाए जाने वाले लाल मकोडों जैसा वह धानी हरा जीव भी अब पुष्प की निचली साथ की ओर भागता-भागता एकाएक ठहर गया था एवं अपनी कोमल पीठ पर रखा शीश..जो उसके कुल शरीर से बहुत अधिक था...ऊपर उठाये हुए मनुष्य को कृतज्ञता भरी दृष्टि से देख रहा था    


समाप्त  
    


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Monday, August 20, 2012

अनन्या भाग दो


                            अब से १३-१४  वर्ष पूर्व वह १३-१४ वर्ष का ही था ! तब खट्टी इमली का एक पौधा गुरुकुल के सामने फैली व्यर्थ सी भूमि पर उसे उगता हुआ मिला था ! उस भूमि के विषय में उसके पिता ने उसे बताया था कि वह किसी काम की नहीं है, लगभग शापित है... और उस पर कभी कुछ नहीं उग सकता ..सिवाय कंटीले झाड़ों के! किन्तु जब से गुरुकुल में उसके एक घनिष्ठ मित्र ने अपनी किसी बड़ी शंका के समाधान के समय इस स्थान की पुनः खोज की थी तब ही से प्रत्येक दिक्षार्थी की लघुशंका हेतु यह स्थान प्रचलित हो गया था ...बिना गुरुकुल के प्रधानाचार्य की स्वीकृति के ! एक दिन भादों की विचित्र दोपहर में उसकी दृष्टि इस बंजर भूमि पर फेंके गए कूड़े-करकट में से झांकते इस नन्हे इमली के पौधे पर पड़ी थी जिसकी अधिकतर जडें उस व्यर्थ सी भूमि के ऊपर ही थीं ! यहाँ तक कि जिस गहरे चमकीले कत्थई बीज से वह संभवतः उगा था, उसी को और अधिक सुन्दर, नए से हरे रूप में अपने साथ ही लिए उगे जा रहा था ! उसे ध्यान आया कि अभी कुछ समय पूर्व जेठ मास की कठोर धूप में उसने गोबर से लिपे प्राचार्य के कक्ष की पिछली भीत पर अपने नाखूनों से खोदकर ऐसा ही एक खट्टी इमली वाला पौधा उकेरा था ! तब उसकी उँगलियों पर से कुछ नाखून छूट गए थे, सूखे-लिपे गोबर पर उसके रक्त से जो चिन्ह बने थे वे सब भयावह थे.....उनमें केवल कोई पौधा था ...खट्टी इमली का कोमल हरापन कहीं नहीं था..!
                                   केवल पौधा ही सही, परन्तु मनुष्य को अपनी उँगलियों से कुरेदे इस पौधे से प्रेम था ! इमली के तने पर नवजात से हरे बीज की कमी अब भी गोबर से लिपी भीत वाले पौधे पर उसे खल रही थी ! हरे बीज का वैसा रंग उसने बस एकाध बार, एक-दो अलग तरह के वस्त्र धारण करने वाली, बहुधा अपने से बड़ी लगने वाली युवतियों की चुनरी पर देखा था ! पूर्णतः व्यर्थ भूमि पर बिखरी अद्वितीय हरीतिमा का इन अत्यावश्यक युवतियों के परिधान से क्या संबंध था, उसे कभी न पता चल सका
                                 बीतते समय के प्रत्येक तात्पर्य का भान सब को यदि न भी हो सके तो क्या समय का बीतना रुक सकता है..? हरे परिधानों वाली युवतियों से वह छोटा क्यूँ दिखता है, यह बात शायद कभी उसकी समझ में आती भी तो समय को उससे आगे निकलने का कोई न कोई और अवसर मिल जाता ! गुरुकुल के उस घनिष्ठ मित्र ने समय समय पर अपने अनुभव उस के साथ बांटे तो थे, परन्तु उसे सदैव यही लगा था कि यह सारी वार्ताएं उससे केवल इस कारण से होती हैं क्यूंकि वह अपने मित्र एवं उन युवतियों की अपेक्षा सदा अल्प वय का दिखता है ! यदि उसका जन्म कुछ और पहले हुआ होता तो शायद वह स्वयं मित्र के कंधे पर घनिष्ठता से कुहनी टिकाये हरे परिधानों की कथाएँ कह रहा होता !
                                अस्तु...! यह खट्टी इमली का पौधा उकेरने के पश्चात् उसे भीतरी सतह पर कुछ बड़ा समझा जाने लगा था ! यह भी उस समय की कुछ कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी ! लगता था कि बड़ी युवतियों की दृष्टि अब उस पर पड़ती थी तो आँखों के नीचे फैले धानी काजल से होकर पड़ती थी ! उसे तो इतना तक लगने लगा था कि उसकी काल्पनिक कुहनियों के तले घनिष्ठ मित्र का कंधा ही नहीं, प्राचार्य का शीश तक है ! परन्तु हुआ यह था कि कुछ सहपाठियों के उलाहनों के कारण उसकी वह उपलब्धि प्राचार्य को खटक गयी थी ! गुरुकुल से निष्काषित किये जाने के पश्चात् फिर उसने न तो घर का मुंह देखा, न पिता का !

                                दाहिनी ओर की दोनों भुजाओं के साथ तीसरी भुजा उसने इन्हीं विचारों के साथ पूरी तन्मयता से उकेर डाली थी ! अब प्रतिमा पर कुल जमा पांच भुजाएं थीं ! चार तो कई शताब्दियों से चलीं आ रहीं एवं पांचवीं एकदम आज ही उकेरी हुई ! एकदम अभी ही उकेरी हुई...!! एकदम उसी के द्वारा...!!! जब राजसभा में उसे इस विलक्षण कार्य हेतु विशेष सम्मान ग्रहण करने के लिए मंच पर बुलाया जाएगा तो वह सरलता से मंचासीन राज-पार्षदों पर अपनी क्षमादायक दृष्टि डालते हुए स्वीकार करेगा कि यह चमत्कार उसके कला-कौशल से नहीं हुआ, अपितु दैवयोग से उसकी दृष्टि के समक्ष पाषाण पर प्रकट हुई प्रकृति की कृपा से हुआ है !यही तो होती है विनम्रता ..जो उसके पिता में भी थी ! जैसा भी कुछ लगता उन्हें, ठीक वैसा ही कह देते थे...हर किसी को...!

                               प्रतिमा के दाहिनी ओर बनी यह विशेष भुजा स्वयं तो पूर्णतः दोष-रहित थी परन्तु इस विलक्षण सृजन से पूरी प्रतिमा उसे कुछ असंतुलित दिखने लगी थी ! दाहिना भाग कुछ अधिक भार लिए एवं बाँयां भाग कुछ हल्का..! चारों भुजाओं पर जो भुजबंद अंकित थे वे सभी कांस्य या अधिक से अधिक स्वर्ण के हो सकते थे ! पांचवीं भुजा पर भी वह ऐसा ही भुजबंद उकेरना चाहता था ! बांह पर लिपटी पाषाण की  डोर को वह किसी मूल्यवान धातु के रूप में ढालना ही चाह रहा था कि डोरी के अनगढ़े लटकाव पर उसे कुछ नयी रेखाएं दिखीं! ध्यान से देखने पर पता चला कि इस लटकाव पर बाकी चारों भुजाओं सा मूल्यवान धातुओं से बना हुआ भुजबंद नहीं है, बल्कि चार-पांच नन्हीं रेखाएं नीचे पृथ्वी की ओर गिरती हुईं एक बहुत छोटे से कमल-पुष्प की आकृति सा कुछ बना रहीं हैं ! सभी से छोटी बसौली ही जैसे तैसे इस नन्हें फूल को कच्चा पक्का उकेर पायी थी ! बाकी इसे कोमलता से तराशने का कार्य मनुष्य की उँगलियों ने ही किया था ! सब कुछ पूर्णतः स्पष्ट था अब ! अब मंच पर प्रदर्शित की जाने वाली विनम्रता की कुछ अधिक आवश्यकता उसे लग रही थी !    ...

cont...

Monday, July 9, 2012

अनन्या भाग एक


                                           महा यक्षिणी अनन्या ने गर्व से भरे हुए अपने मुख को तनिक और तानते हुए उस मनुष्य की ओर प्रेम भरी दृष्टि डाली और अपनी बायीं भुजा उठाते हुए एक दिशा में संकेत किया ! उसकी कोमल भुजा के नीचे से जाती हिम से ढके भूभाग पर फिसलती हुई मनुष्य की दृष्टि अनन्या के अंगूठे के साथ जुडी सामंती तर्जनी द्वारा दिखाए जा रहे लक्ष्य तक जा पहुंची ! दोनों नयन क्षण भर के लिए सूर्य के तीव्र प्रकाश से टिमककर, तनिक सहमकर, स्वयं को प्रत्येक परिस्थिति के लिए दृढ करते हुए, अनन्या की तर्जनी की एकदम सीध में लक्षित श्वेत कमल पर जा रुके ! अनन्या का अंगूठा उस समय विचित्र स्थिति में था, परन्तु यह उस समय कोई ध्यान देने का विषय नहीं था ! अभी तो मनुष्य के सौन्दर्य-प्रिय नेत्र केवल उस श्वेत पुष्प की अद्वितीय छटा के दर्शन कर रहे थे ! यह औसत से कुछ बड़ा एक श्वेत कमल पुष्प था, जो इतना अधिक अलौकिक एवं प्राकृतिक था मानो स्वयं महा यक्षिणी अनन्या..!! कदाचित इस अनूठे पुष्प की सुन्दरता पर मुग्ध हो इस महा सुंदरी अनन्या ने मनुष्य के अनकहे प्रेम निवेदन को तनिक कहकर स्वीकारते हुए केवल इस पुष्प को अपने लिए तोड़ लाने का निवेदन किया था ! इस निवेदन में यद्पि कोई आदेश नहीं था, प्रेम के बदले पुष्प जैसा कोई आदान प्रदान भी नहीं था! केवल एक सुन्दर फूल पर रीझ उठी उस सहज सुंदरी की सहज प्रवृत्ति मात्र थी, जो निसंदेह ही महा यक्षिणी अनन्या के अद्वितीय रूप पर शोभा भी देती थी ! कुछ देर और फूल का सौन्दर्य पान करने के पश्चात् मनुष्य की शांत दृष्टि हिम से ढके भूभाग पर उसी मार्ग से अनन्या की तर्जनी के अग्रभाग तक वापस लौटी थी ! किसी भी वस्तु को ऐसे ही देखना उसका स्वभाव था, मानो वह अपने विचार और बाह्य सौन्दर्य को एक सीध में देखना चाह रहा हो ! अनन्या का अंगूठा अब भी उसी विचित्र स्थिति में था और मनुष्य ने अब भी उस पर कोई ध्यान नहीं दिया था ! उसकी शांत दृष्टि तो और भी अधिक स्निग्धता लिए अनन्या की कोमल सामंती तर्जनी के अग्रभाग पर क्षण भर विश्राम सा करने के पश्चात् पुष्प से भी कोमल हथेली से चिपकी बाकी तीनों उँगलियों को स्पर्श करते हुए ..ऐसा स्पर्श जिसका प्रभाव विचित्र स्थिति में तर्जनी से चिपके अंगूठे पर भी एक बार हुआ था ! सफ़ेद कलाई के उठान से चुंधिया कर , अंगूठे की जड़ में संजोये हलके अन्धकार का उपकार लिए, अनन्या की उठी दिव्य भुजा पर, बल्कि कहें तो भुजा के दिव्यरूप की एकरसता को तोड़ते हुए भुजबंद पर रुक गयी ! विधाता द्वारा रची गयी महा सुंदरी अनन्या की दिव्य भुजा पर पृथ्वी के किसी प्राणी द्वारा बनाया हुआ भुजबंद...!!!
                भुजबंद..!! जिसके निचले लटकाव पर सूर्य के तेज से बचता हुआ एक छोटा...औसत से तो बहुत ही छोटा श्वेत पुष्प अनन्या की सुन्दर सामंती बांह के नीचे भी निडरता से बह रही पवन में कितनों की ही इच्छाओं का पालन करते हुए झूल रहा था...शायद स्वयं की इच्छा से ही...और आश्चर्य ....कि अनुभवी मनुष्य की दृष्टि जान ही नहीं पा रही थी कि वह श्वेत पुष्प उसकी इच्छा से पवन में हिचकोले ले रहा है  अथवा स्वयं उसकी दृष्टि उस पुष्प की किसी इच्छा से उसकी ही गति अनुसार दायें-बायें हो रही है...कभी कभार तनिक आगे और बहुत ही कभी मामूली पीछे भी ! विचार अनंत थे उस समय ..और उन सब की परिभाषाएं भी अनंत थीं ! अभिलाषाएं उस समय स्तब्ध थीं....और प्रेम......!!!
                                          वह जान ही न सका कि प्रेम स्तब्ध हो चुका है अथवा समस्त अनंतों में अनंत हुए जा रहा है .................
               अब मनुष्य की दृष्टि औसत से कुछ बड़े श्वेत कमल को तो देख रही थी..और स्वभावतः जो मार्ग महा यक्षिणी की सामंती उंगली ने उसे दिखाया था..उसी मार्ग से लौटते हुए अब उसकी दृष्टि इस तर्जनी ऊँगली पर ही नहीं आकर नहीं रुक  रही थी ! लक्ष्य पर जाकर एकदम उसी मार्ग से वापस लौटना उस मनुष्य दृष्टि का स्वभाव था किन्तु प्रथम बिंदु .जहां से वह लक्ष्य तक पहुंची थी..लौटते समय जाने क्यूं वह इस प्रथम बिंदु से भी कुछ इधर ही आ भटकी थी ! अब विचार भी स्तब्ध थे..और उनकी परिभाषाएं....!......और फिर अभिलाष.........!!!!!
                 छोटे से वायु मंडल में जानी अजानी इच्छाओं के साथ हिचकोले खाता वह औसत से तो बहुत ही छोटा पुष्प प्रत्येक विचार, और विचारों की विविध परिभाषाओं के प्रमाणों से मुक्त मनुष्य की ओर देखकर मानो उसे कुछ स्मरण करा रहा था ! मनुष्य उस समय विवश हो गया था उस शुभ्र पाषाण को सोचने के लिए, जिसकी प्राकृतिक संरचना में उभरी रेखाओं में उसे ऎसी ही दिव्य बांह दिखाई दी थी ..
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                                        पृथ्वी .....!!! मानो अनेक आत्माओं के अनगिनत रंगों से मिलाकर विधाता ने सुन्दर चित्र बनाया हो और बना चुकने के पश्चात् किसी अनिच्छा  अथवा किसी इच्छा से उसके अरबों खरबों टुकड़े कर दिए हों ! उसके पश्चात् वे सब टुकड़े शायद अनिच्छा से ही इधर उधर उलटे सीधे जोड़कर वह चित्र दोबारा बनाया हो और पृथ्वी पर चिपका दिया हो ! इच्छा एवं अनिच्छा से बने उस चित्र के अलग अलग कटे-बंटे हुए अंश मानो इस अज्ञात अनिच्छा को न समझते हुए अपने पुराने रूप में वापस लौट आने को लालायित हो उठे हों ! शायद इच्छा एवं अनिच्छा के इस विचित्र संयोग से बना हो यह पृथ्वी का जीवन चित्र..!! और जैसे प्रत्येक अंश अपने इर्द गिर्द कुछ अनचाहे चित्र-अंश पाकर असहज हो उठा हो  ! अपने पास के जो थोड़े बहुत हिस्से संयोग वश उसके आकार और प्रकृति से मेल खा रहे हैं..वे सब उसके लिए सुन्दरता हों  और जो अंश उसके अनुरूप नहीं हैं वे.....!! वे सभी अंश जाने क्यूँ उसे कुरूप, पृथ्वी पर व्यर्थ बोझ, उसे तिलमिला देने की सीमा तक कष्ट देने वाले लगते ! यहाँ तक कि उसकी बुद्धि कभी भी उन्हें मात्र संयोग तक मानने को तैयार तक न हो पाती ..यद्पि अब उन सब बेमेल अंशों को जड़मूल सहित नष्ट किये जाने की उसकी चाह काफी हद तक कम हो गयी थी , फिर भी  स्वयं को अपनी तरह से पूर्ण करने की चाह में अपने अतीत के अंशों की खोज में किसी अनजान स्थान पर,अनजान दिशाओं में चल देना चाहता था !
                        उसे राजा से आदेश मिला था कि वह राज्य के विशिष्ट  मंदिर में स्थापित राज्य की प्रमुख देवी की शुभ्र प्रतिमा को पुनः छील-तराश कर उसका शताब्दियों के बोझ के नीचे दब चुका सौन्दर्य नए रूप में प्रस्तुत करे...और ऐसे प्रस्तुत करे कि आने वाले समय की पीढियां इस राजा को भी उस देवी जैसी ही श्रद्धा के साथ याद करे ...यह राजाज्ञा सुनकर छिन्न-भिन्न एवं मलिन देवी प्रतिमा पर से उसकी दृष्टि राजसिंहासन तक गयी थी..और प्रत्येक पार्षद के नकली मुस्कान धारण किये मुख से होती हुई वापस देवी तक आई थी ..जैसा कि उस की दृष्टि का स्वभाव था ! अब तक मलिन हो चुके किसी समय  बहुत ही अधिक श्वेत रहे पाषाण से आगे जाने का सामर्थ्य मनुष्य की आँखों में नहीं था..फिर भी एक संतोष था कि सदा चाटुकार पार्षदों से घिरे रहने वाले दूरदर्शी राजा की दृष्टि उस की कला पर पड़ ही गयी थी ..विचित्र सा यह संतोष राजा की 'दूर' वाली दूरदृष्टि तथा निकट वाले चाटुकारिता भरे मुख-मंडलों पर भारी था ! अब वह कतई नहीं सोच रहा था कि यदि राजा वास्तव में दूरदर्शी है तो उसे उसके समीप रहने वाले राज-पार्षदों के हाव-भाव से वह सब क्यूँ नहीं दिखता जो उसे दिखता है.
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---                        देवी की प्रतिमा पर समय के कारण चढ़ी असुन्दरता को जल्द ही उसने निरंतर श्रम एवं अपने बड़े से बसौले की सहायता से छील कर पुनः लगभग समतल पाषाण में बदल दिया था ! कतई समतल तो नहीं कहा जा सकता ..तथापि  एक ऐसा ढांचा अवश्य ही बन गया था जिसे चाहे तो वैसे ही प्राचीन आकार में नए सिरे से ढाला जा सकता था अथवा चाहे तो किसी भी अनूठे ढंग से उसका काफी सीमा तक रूप बदला जा सकता था ! यह बात अलग थी कि राजाज्ञा में उससे यह आवश्यक अपेक्षा की गयी थी कि आने वाली संतानें उस प्रतिमा की भाँति ही इस राजा का भी श्रद्धा से स्मरण करें !
                       उस दिन तडके भोर के समय तक भी वह उस ढाँचे को नए सिरे से प्रतिमा में ढालने की तैयारी कर रहा था ! सूर्य अभी उदय नहीं हुआ था ! हलके अन्धकार एवं हलके प्रकाश में उसने देवी-प्रतिमा की चारों भुजाओं को एक खुरदरा आधार देने का कार्य संपन्न किया था ! पूर्णिमा से पहले वाली रात्रि उसने अनवरत एक छोटी बसौली पर छोटे हथौड़े से प्रहार पर प्रहार करते व्यतीत की थी ! प्रतिमा के कटि-प्रदेश का ऊपरी भाग अनगढ़ ही सही परन्तु एक सुन्दर आकार ले चुका था ! उसने विश्राम करने हेतु अभी हथौड़ा रखा ही था कि प्रतिमा की दाहिनी ओर की भुजाओं के साथ उसे एक तीसरी भुजा दिखी ! क्षण भर को वह चकित रह गया ! उसने अपने मस्तिष्क  पर हाथ रख कर अनुभव करना चाहा कि कहीं अत्यधिक श्रम से उसका शरीर इतना तो नहीं थक गया कि उसे अपने अभी चल ही रहे कार्य के प्रति भी संदेह होने लगे...! जब वह कुछ न समझ सका तो स्वयं यंत्रवत चलता हुआ देवी-प्रतिमा के समीप जा पहुंचा , जैसे कोई विचार ही शेष न रह गया हो जिस पर उसकी स्वाभाविक दृष्टि उसके हाथ के नीचे स्थित मस्तिष्क तक लौट सके !               
                  हाँ.....! यह देवी की पांचवीं भुजा ही थी जो दाहिनी ओर की दोनों भुजाओं के साथ ही दृष्टिगोचर हो रही थी ! और अधिक निकट पहुंचने पर उसने देखा कि यह भुजा उसकी छोटी बसौली-हथौड़े के प्रहारों से नहीं बनी है बल्कि इस श्वेत पाषाण पर प्राकृतिक रूप से बनी है ! प्रतिमा के बाहरी सपाट भाग पर कुछ गहरी श्याम-वर्ण प्राकृतिक रेखाएं हैं जो इस श्वेत पाषाण पर भुजा की आकृति सा कुछ बना रहीं हैं ! एक बार उसकी दृष्टि उसके द्वारा रची गयी दोनों दाहिनी भुजाओं पर, तत्पश्चात दोनों बायीं ओर की भुजाओं पर गयी ! फिर कुछ पग पीछे की ओर वहाँ जाकर, जहां उसे विश्राम करना था, उसने समूची प्रतिमा पर मानो एक निर्णायक सी दृष्टि डाली ! उसके अथक परिश्रम से बनी देवी की चारों भुजाएं..बल्कि कहें तो समूची प्रतिमा ही उस अनूठी,अनचाही प्राकृतिक भुजा के समक्ष हर प्रकार से अर्थहीन लग रहीं थीं ! उसके हाथ एक बार फिर अपने मध्यम आकार वाले बसूली-हथौड़े की ओर बढे ही थे कि वह स्वयं की निर्णायक दृष्टि पर संदेह कर बैठा ! 
                     नहीं.....!!!....अभी नहीं.....!! कितना परिश्रम किया है इन चारों भुजाओं को देवी प्रतिमा में उचित ढंग से ढालने में ...!! रात-दिन न तो आहार की चिंता की है और न ही निद्रा की ! अपनी देह के प्रत्येक संतुलन को बिसरा कर ही तो देवी-प्रतिमा का अंग-प्रत्यंग कितना संतुलित बनाया है ! इतने सब पर कोई भी व्यर्थ का विचार कैसे हावी हो सकता  है ..? वह भी ऐसा विचार ..जिसका अस्तित्व संभवतः उसका ही दृष्टि-दोष हो ..!! कितना अमूल्य समय नष्ट करके बनायी प्रतिमा को इतनी शीघ्रता से लिए गए निर्णय से ध्वंस्त नहीं किया जा सकता ! कैसे हो सकता है कि चारों भुजाओं को फिर से सपाट कर देने के बाद इस पांचवीं भुजा के समान ही तीन और भुजाएं भी मिल ही जाएँ ? कौन जाने कि पूर्णिमा की रात्रि के बाद जाता हुआ चंद्रमा ऐसा अनिश्चितता से भरा वातावरण पृथ्वी पर और भी स्थानों पर काढ कर जाता हो..!!         
                     
                           कहना कठिन है कि मानव-शरीर चेतन मस्तिष्क के आदेश पर कार्य करता है अथवा अवचेतन मस्तिष्क के..? हो सकता है कभी यह शायद बिना किसी आदेश के भी कार्य करता हो..! कितनी ही बार ज्ञात नहीं हो पाता कि कहाँ से उठे, किस विचार के प्रभाव में आकर मानव प्रत्येक विचार से पूर्णतयः प्रभावहीन होकर कोई कार्य करने लगता है ! इसी प्रकार शायद  मनुष्य के हाथों ने जाने कब पाषाण की उबड़-खाबडता को छीलने वाला बड़ा बसौला भूमि पर धर दिया और कब उसके हाथों में छीले कटे समतल पाषाण को सुघड़ आकार में ढालने वाली छोटी सी बसौली आ गयी ! अभी तक किये गए पूरे कार्य में यह समय ऐसा था जब उसे बहुत बुरी तरह थका होने के पश्चात् भी सबसे अधिक स्फूर्ति का अनुभव हो रहा था ! क्षुधा ,निद्रा एवं श्रम से निढाल होते उसके शरीर में ऐसे नवीन रक्त का संचार हुआ था मानो अभी उसकी आयु १३-१४  वर्ष की ही हो !....Cont...

Friday, June 15, 2012

तुम्हें भूलने की बड़ी बीमारी है यार....जब कोई कहता है तो सोचता हूँ कि क्या भूलना भी कोई बीमारी होती है ..भूलना तो महज एक आदत होती है..वो भी बड़ी मासूम सी आदत ..किसी को कोई ज़्यादा परेशान ना करने वाली..दुःख ना देने वाली आदत...कितना ज़्यादा सुकून मिलता है इस आदत से..और लोग बाग़ हैं कि इस सुकून देने वाले इकलौते टॉनिक को ही बीमारी साबित करने पर तुले हैं ...इसके उलट kuchh याद रखना कितनी बड़ी बीमारी है..

Friday, November 18, 2011

हक-परस्ती ज़ीस्त का उनवां हुई किस दौर में
भाई-बंदी फितरते-इन्सां हुई किस दौर में

आसमां छूने लगीं हैं मुर्दा-तन की कीमतें
ये मेरी जिंदादिली अर्जां हुई किस दौर में

कितनी वजहें पूछती हैं मुझसे जीने की वज़ह
जिंदगी, तू भी मेरी जानां हुई किस दौर में

इक सिफ़र के ही सफ़र में गुम हुए आलम कई
दिल की हर उलझन हमारी जां हुई किस दौर में

था अभी तो वक़्त, उठने थे अभी परदे कई
अक्ल अपनी देखिये, हैरां हुई किस दौर में

सब बराबर हो चला अब तौलने को कुछ नहीं
मेरी सौदागर नज़र मीजां हुई किस दौर में

क्यूं ग़ज़ल की तंगदस्ती का ग़िला आशिक करे
गुफतगू माशूक से आसां हुई किस दौर में

Thursday, August 4, 2011

बल्कि तस्वीर हव्वा की बनाने बैठा था..

दुनिया की पहली औरत हव्वा..
पहली औरत जो...

खुदा का शौक थी, शैतां का प्यादा
अजल से खेल बस, औरत की जां थी..


दुनिया..
जो मेरे लिए शायद एक बार फिर से पहली थी..सुनने में आया था कि किस्म किस्म की किताबें पढ़ कर सयाने बन चुके लोग, लोगों के ज़हन में हव्वा की एक तस्वीर बनाए हुए हैं..पढ़ी गयी किताबों के हिसाब से ...
सिर्फ लिखे हुए को ही सब कुछ समझ लेते हैं लोग बाग़ ..किस किस्म के लेखक ने लिखा है सब..किसी को भी क्या मतलब हुआ है कभी...

नाश की जड़, नरक का दरवज्जा. ऐसे ही जाने कितने नामों अब तक से नवाजी गयी हव्वा...जिसके तन पर जाने कहाँ से एक शर्ट पेंट हो गयी थी मुझसे..सोचा तो खूब ही था उस पल..कि ये तो हव्वा जैसी तो कहीं से भी नहीं लग रही उस लाल कमीज़ में...

कमीज़...
जिसे पेंट करने की वजह ..दिल और दिमाग का कैसा भी डर नहीं था ब्रश पर...हजामत किये जाने वाले बाल और उनसे सटे दांतों की हर जद्दो ज़हद तक से शायद वो लाल कमीज़ अनजान थी..या कहें तो बेपरवाह थी ...(लापरवाह नहीं...बेपरवाह..) ....बेपरवाह थी...


कमीज़...

जिसे पेंट करने की वजह कोई भी धार्मिक-अधार्मिक, शारीरिक-अ_शारीरि...ओह शिट.....

उस खाब पे लहरा के उठे जिस्म भी जां भी
जिस खाब से दोनों ही पशेमां थे अगरचे..


हाँ..

धर्म,देश,काल,समय,जात,वर्ण, मतलब-मकसद, सत्ता-कुर्सी.....

यानी किसी भी उल जुलूल फतवे का कोई डर हावी नहीं था....पास का और दूर का चश्मा बारी बारी से चढ़ा कर देखा भी था...

दोनों ही से सिर्र्फ लाल रंग ही तो झलका था...कोई भी रेखा कहाँ नजर आई थी...दोनों ही से...

Wednesday, July 27, 2011

काकटेल का कोलाज़ ..

एक वक़्त में एक ही काम किया करो...ऐसा लगता है..जैसे दिल कह रहा हो..
दिल....
जिसकी भी सीमाएं होती हैं शायद...जिस्म की तरह ही...
फिर कहीं से ये आवाज़ क्यूं आती है...अब तो माँ भी है...और रोज़ी/रोजी भी...
जैसे कोई कह रहा है निकल चलने के लिए....कुछ लेकर..
और..
सब छोड़ कर...
शेव करते वक़्त अब भी शे'र यूं ही दिमाग में कुलबुला रहे हैं...रदीफ़ और काफिये की नाकामी के अलावा कैनवस पर जाने कितनी ही दोबारा से मोल ली नयी नयी नाकामियाँ बिखरी पड़ीं मुंह टाक रहीं हैं...और ऐसे में दिल कह रहा है कहीं निकल चलने के लिए...
पहले से कुछ सिकुड़ चुके गालों पर ब्लेड चल नहीं रहा है आज ठीक से..चलेगा कहाँ से..अभी झाग ही कहाँ बने हैं ढंग से...हाथ की स्पीड और बढ़ा दी है पर बात बन नहीं रही कुछ...क्रीम थोड़ा और मांग रहा है शायद शेविंग ब्रश..........
रंगों से सने हाथों से दोबारा ट्यूब खोलता हूँ..ब्रश पर थोड़ा और ज्यादा लगाता हूँ..अब की जाने कैसे इसकी महक नथूनों में चली आती है...
oooooooooffffffffffff.................

कमबख्त पहली दफा क्यूं ना आई....कित्ती देर से क्लोज-अप टूथ पेस्ट को शेविंग क्रीम समझ कर मलते मलते गाल खुरच डाले.... याद आया...रोज़ी की बात ज़हन में आते ही पेंटिंग वाला ब्रश कलर पैलेट में अपनी दिशा बदलकर गुलाबी रंग की तरफ मुड गया था..और थोड़ी देर के लिए दिल ने इसे भी नियति मान लिया था ..तस्वीर के गाल खामख्वाह गुलाबी हो गए थे...फिर जब ख्यालों ने एक और करवट ली थी..एक और पेग के साथ..तो ध्यान आया था...कि तस्वीर दरअसल रोज़ी की नहीं बनाने बैठा था..बल्कि ...

Sunday, July 10, 2011


आज का दिन..या रात कहें तो...!
बड़ा फुर्सत का थी...या..बड़ी फुर्सत का था....

थोड़ा अब भी बचा/बची है..
आज खुद से ..एक बार फिर तसल्ली से रूबरू होने का दिन/शाम थी...और आज कई साल बाद एक कैनवास खरीदा था...खुद की मौजूदा तस्वीर उतारने के लिए...मौजूदा तस्वीर...खुद की...


.जो जाने कब से मौजूद थी...

स्टेशनरी वाले भाई ने भी पूछ ही लिया था...आज...इतने सालों बाद....!!
आप कैनवास खरीद रहे हैं..!!!!!
उसका सवाल ..बस...एक दुकानदार का सवाल लगा था उस वक़्त...सो एक ग्राहक सा ही जवाब..ह्म्म्म.,,हुंम में देकर सुलटा दिया था..कैनवास के दाम सुनते ही हम अपनी .. हम्म ..हुंम छोड़कर सीधे दुकानदार/ग्राहक वाली जबान पर उतर आये .. मगर कैनवास का दुकानदार शायद जन्मजात दुकानदार था.......


सो हम शायद कुछ न थे उसके आगे...

भले ही उसने जिंदगी भर कैनवास ना बेचे हों...पर था वो दुकानदार ही...बेशक..किसी ऐसे कैनवास का नहीं...जैसा/जैसे हम......पर वो था पक्का दुकां...( इससे ज़्यादा क्या कहें ..किसी को...? )

बहरहाल.....

ऑफिस में हमने कैनवास लाकर रख दिया ..शाम को जाते वक़्त ले जाने के लिए...और कोई बहुत ज़्यादा इंतज़ार भी नहीं किया था शाम का...जितना कि करना चाहिए था...शाम का....

हाँ,
कैनवास पर लिखा रेट जरूर दुबारा देखा था...दो सौ छतीस रुपये...और..और चवन्नी अट्ठन्नी जैसे... शायद कुछ गरीब पैसे भी..हों तो...हालांकि ये दाम ब्रेल में नहीं लिखा/खुदा हुआ था..फिर भी आँखों के साथ उँगलियों ने भी उसमें कुछ टटोला था...

वैसे ही जैसे ब्रेल को टटोला जाता है...

Friday, June 10, 2011

एक नयी ग़ज़ल...

एक नयी ग़ज़ल लेकर हाज़िर हैं...जो नेट कि मेहरबानी से किसी तरह पोस्ट हो जाए तो...




बढ़ा दी हैं मेरी गर्दिश ने जिम्मेदारियां मेरी
कहाँ हैं अब किसी के काम की नाकामियां मेरी

नज़रिया इन दिनों कैसा है उनका क्या बताऊँ, अब
खटकती ही नहीं उनकी नज़र में खूबियाँ मेरी

खुदा जाने कि मेरी मुश्किलों से वो रहा ग़मगीं
कि उसके ग़म से अफसुर्दा रहीं दुश्वारियां मेरी

किसी की चाल है या है चलन इस दौर का ऐसा
चले हैं हट के मेरे तन से अब परछाइयाँ मेरी

समझना था सभी ने अपने अपने ढंग से मुझको
समझ कर भी समझता क्यूँ कोई खामोशियां मेरी

हिसाबे-उम्र, इस दिल पर अभी बचपन बकाया था
अगर करती नहीं मुझको बड़ा मजबूरियां मेरी

करेंगे रंग वो बेबाक सा कुछ अब के चिलमन का
कि उस चिलमन पे शा'या हो चलीं बेबाकियां मेरी


Wednesday, March 2, 2011

एक पुरानी ग़ज़ल... मेज़र साहब की जिद्द पर... ग़ज़ल..जो कि मुफलिस जी के साथ मोबाइल एस.एम.एस के द्वारा हुई...

जमा खोरो की नीती जेब पर भारी रही तो
जो खुद मिट जाने की हद तक खरीदारी रही तो

सवेरे शाम बस खिचड़ी ख्यालों की पकेगी
अगर फल से भी मंहगी अब के तरकारी रही तो

खुद अपनी शक्ल की पहचान मुश्किल हो रहेगी
उजालों की, अंधेरों से तरफदारी रही तो

वफ़ा की राह अगले वक़्त में वीरान होगी
वफादारी पे गर यूं ही ज़फा भारी रही तो

हलक से सच तुम्हीं बोलो, भला फूटेगा कैसे
अगर गर्दन पे ठहरी झूठ की आरी रही तो

गुजर बादाकाशों का बोल क्योंकर हो सकेगा..?
जो साक़ी की भी पीने में तलबगारी रही तो

सिनेमा में दिखेंगे भांड और सर्कस के जोकर
अदा के नाम पे ये ही अदाकारी रही तो



Monday, February 14, 2011

प्रेम दिवस पर....

उनके हर इक सवाल का, मैं दे तो दूं जवाब,
मेरे लिए सवाल मगर पेट का भी है...

Monday, October 25, 2010

एक बे-काफिया ग़ज़ल...

एक ग़ज़ल ... बे-kaafiyaa ग़ज़ल...
करवा चौथ par...


जब से है बज्म में हमराजे सुखनवर मेरा
शे'र क्या रुक्न भी होता है मुक्कमल मेरा

कुफ्र कहते हो जिसे तुम, कभी दीवानापन
कुछ नहीं और, है ये तौर-ऐ-इबादत मेरा

रश्क होता है फरिश्तों को भी आदम से तो फिर
बोल क्यों खटके मुझे रूतबा-ऐ-आदम मेरा

रात जो हर्फ़, तमन्ना में नया लगता है
सुबह मिलता है वोही हर्फ़-ऐ-मुक़र्रर मेरा

और गहराइयां अब बख्श न हसरत मुझको
कितने सागर तो समेटे है ये साग़र मेरा

आह निकली है ओ यूं दाद के बदले उसकी
कुछ तो समझा वो मेरे शे'र से मतलब मेरा

Tuesday, September 21, 2010

एक पुराना शे'र याद आ गया..
मेट्रो में ही हुआ था कभी....




जब कि ज़ाहिर है तेरी हरकत से तेरी कैफियत
क्या जरूरी है बता, फिर फुसफुसाना कान में ...

Tuesday, September 7, 2010

उस नज़र में 'बे-तखल्लुस'



काफी वक़्त से लग रहा था कि कोई ग़ज़ल नहीं हुई है..अभी पिछली फुरसतों में कुछ डायरियां,कागज़ के पुर्जे ,कापी-किताबें वगैरह देखना हुआ ... तो जाने कब कैसे किस बेखुदी में लिखी ये ग़ज़ल..कुछ और शे'र भी बरामद हुए..शायद ४-६ महीने पहले के हैं..
आपकी खिदमत में पेश हैं... 



पहले खुद की फिर ज़माने की नज़र से देखना

कुछ नहीं समझो तो फिर मेरी नज़र से देखना

जान कर अनजान को वैसी नजर से देखना
जी जलाए है तेरा ऐसी नज़र से देखना 

प्यास को काबू में रख, प्यासी नज़र से देखना
तू कभी प्याले को साकी की नज़र से देखना

और खुशफहमी बढ़ा देता है यारब, उनका वो
पढ़ कलाम अपना मुझे उडती नज़र से देखना

सुर्खिये लब जिनकी ठहरी सुर्खियाँ हर शाम की
सुब्हे-दम वो सुर्खी तू पैनी नज़र से देखना

उस नज़र में 'बे-तखल्लुस' खो गया सारा जहां 
मुझ में खोकर वो मुझे खोई नज़र से देखना 

Monday, August 23, 2010

बाल रचना...


अभी परसों की ही बात है..एक फोन आया..
'फूफा जी, आप कहाँ हो..?'
हमने कहा बेटा काम बोलो...पर फिर वही सवाल...'आप हो कहाँ'
हमने दोबारा कहा...बेटा बात क्या है...?
'ख़ास नहीं, पर पहले ये बताओ कि आप कहाँ हो...?'
अब कहना ही पडा कि एक हफ्ते पहले एक्सीडेंट हो गया था, पाँव में फ्रेक्चर हुआ है...सो तब से घर पर ही हूँ,..अब पहले तो काम बोलो..और दूसरा ये सुन लो कि आप लोग हमारी खैर खबर लेने हरगिज नहीं आयेंगे... हम बखूबी जानते हैं कि तुम लोगों का घर से निकलना बेहद मुश्किल है इन दिनों और तुम ये फोर्मलिटी किये बिना मानोगे नहीं...

काफी कह सुन लेने के बाद हमें बताया गया कि फलां विषय पर कविता लिख कर देनी है..वो भी अभी...कुछ ही देर के अन्दर...!! विषय भी ऐसा जिससे कभी कोई वास्ता नहीं पडा...
अब हमारे इकलौते जमाने पर रखे पांव के भी नीचे से रही सही ज़मीं खिसक गयी...
यूं पहले भी हिंद युग्म पर दिए गये चित्र पर एक दो बार लिखा है..पर एक तो वहाँ एक महीने का समय दिया जाता है...ऊपर से कुछ लिखने का मूड ना भी हो तो कोई जबरदस्ती नहीं होती...

खैर...उन दस-बीस मिनट में जो भी लिखा गया..वही आपके सामने रखते हैं...
काफी वक़्त बाद कुछ नया है तो यही है बस....

............

...............

बाल-ह्रदय में पनपे कैसे जीवन का आधार..?
बच्चों को दुश्वार हुआ दादा-दादी का प्यार



बुढ़िया चरखा कैसे काते , कौन कहे अब चाँद की बातें
बच्चे सा ही बच्चा बनकर , कौन है इनका सुख-दुःख बांटे..?
व्यस्त पिता हैं बहुत उन्हें दिखता हरदम व्यौपार...

बच्चों को दुश्वार हुआ दादा-दादी का प्यार...


दादा-दादी भी फुर्सत में, पोता पोती भी फुर्सत में
वृद्धाश्रम में हैं ये तनहा,उधर अकेले हैं वो घर में
'लगे रहो मुन्ना भाई' से कुछ तो सीखो यार

बच्चों को दुश्वार हुआ दादा-दादी का प्यार.....


भौतिकता की ओढ़ के चादर, नैतिकता से मुंह मत मोड़ो
उन्नति की सीढ़ी चढ़ लो ,पर अपने बड़ों का हाथ न छोडो
आखिर वो ही सिखलाते सच्चाई, शिष्टाचार

बच्चों को दुश्वार हुआ दादा-दादी का प्यार.
बाल ह्रदय में पनपे कैसे जीवन का आधार..?

बच्चों को दुश्वार हुआ दादा-दादी का प्यार....


Sunday, August 15, 2010

कसम मेरी जां

ये साकी से मिल, हम भी क्या कर चले
कि प्यास और अपनी बढाकर चले..

खुदाया रहेगी, कि जायेगी जां
कसम मेरी जां की वो खाकर चले

भरम दिल की चोरी का जाता रहा
वो जब आज आँखें चुरा कर चले

चुने जिनकी राहों से कांटे,वो ही
हमें रास्ते से हटाकर चले

तेरे ही रहम पे है शम्मे-उम्मीद
बुझाकर चले या जलाकर चले

रहे-इश्क में संग चले वो मगर
हमें सौ दफा आजमा कर चले

खफा 'बे-तखल्लुस', है उन से तो फिर
जमाने से क्यों मुंह बना कर चले...

Saturday, July 10, 2010

शोला-ऐ-ग़म में जल रहा है कोई
लम्हा-लम्हा पिघल रहा है कोई

शाम यूं तीरगी में ढलती है
जैसे करवट बदल रहा है कोई

उसके वादे हैं जी लुभाने की शय
और झूठे बहल रहा है कोई

ख्वाब में भी गुमां ये होता है
जैसे पलकों पे चल रहा है कोई

दिल की आवारगी के दिन आये
फिर से अरमां मचल रहा है कोई

मुझको क्योंकर हो एतबारे-वफ़ा
मेरी जाने-ग़ज़ल रहा है कोई

Friday, July 2, 2010

दो जुलाई,


आज से ठीक एक साल पहले हिंद-युग्म पर अपनी एक ग़ज़ल आई थी....जिसका मतला था..

शोला-ऐ-ग़म में जल रहा है कोई,
लम्हा लम्हा पिघल रहा है कोई ..

उन दिनों दिमाग कुछ ज्यादा ही हवा में रहने लगा था...ठीक उसी दिन कुछ ऐसा हुआ कि हमने अपनी जॉब ही छोड़ दी ...हालांकि उस वक़्त जॉब छोड़ कर एक सुकून भी मिला ...लेकिन साथ ही मंदी के दौर में नयी जॉब और पेट पालने की फ़िक्र भी हुई..भरी दोपहरी ही उस दिन घर वापस आ गए थे हम...किसी से कुछ कहा नहीं..बस आकर ऊपर वाले रूम में कंप्यूटर ऑन कर के बैठ गए..हिंद-युग्म खोल कर देखा तो अपनी ये ग़ज़ल वहाँ छपी हुई थी..देखकर कुछ ठीक सा महसूस हुआ..
उसी पर नीचे एक कमेन्ट पर नज़र पड़ी...( इसे कहते हैं एक कामयाब ग़ज़ल....)

वाह रे हमारी उस दिन की बेबसी...और ये प्यारा सा कमेन्ट...

उस वक़्त एक शे'र हुआ...जो आगे ग़ज़ल की शक्ल में ना ढल सका...

हर ग़ज़ल कामयाब है उसकी
कितना नाकाम शख्स होगा वो


आज दिल किया ..ये ही अकेला शे'र आपसे साझा करने का...

Monday, June 28, 2010

था ख्याल अपना फक़त वो , प्यार समझे हम जिसे
इक अदा-ऐ-जानां थी , इज़हार समझे हम जिसे

अपनी बीनाई अजब है, शक्ल या इस दह्र की
गुल न था, गौहर था, अब तक खार समझे हम जिसे

तू हमारी तरह मौला, बख्श उनकी भी खता
फिक्रे-दीं उनका था वो, व्यौपार समझे हम जिसे

मुश्किलें वो जीस्त की लाजिम थी सेहत के लिए
जीने का सामां वो ही था, बार समझे हम जिसे

और खुल निकले दहाने, ज़ख्मों के हैरत से, हाय..!
ठहरा वो ही चारागर, बीमार समझे हम जिसे

Wednesday, June 2, 2010

2 june

आज दो जून है...हमारी शादी की साल गिरह..सवेरे ही याद आ गया था..साथ ही याद हो आयी एक बरसों पुरानी रचना.....
एक बे-मतला गजल ...
जब एक दफा बेगम साहिबा अपने बताये गए समय से कुछ ज्यादा ही रुक गयीं थी मायके में... तब हुयी थी ये....
आज इसे ही पढें आप ....

ये अहले दिल की महफ़िल है कभी वीरान नहीं होती
के जिस दम तू नहीं होता तेरा अहसास होता है

तेरे जलवों से रौशन हो रहे शामो-सहर मेरे
तू जलवागर कहीं भी हो तू दिल के पास होता है

चटखते हैं तस्सवुर में तेरी आवाज़ के गुंचे
जुदाई में तेरी कुर्बत का यूं अहसास होता है

निगाहों से नहीं होता जुदा वो सादा पैराहन
हर इक पल हर घड़ी बलखाता दामन पास होता है

विसाले-यार हो ख़्वाबों में चाहे हो हकीकत में
तेरे दीदार का हर एक लम्हा ख़ास होता है.

नहीं इक बावफा तू ही, तेरे इस हमनवा को भी
वफ़ा की फ़िक्र होती है, वफ़ा का पास होता है

Tuesday, May 25, 2010

purani ghazal...


हसरतों की उनके आगे यूँ नुमाईश हो गई
लब न हिल पाये निगाहों से गु्ज़ारिश हो गई

उम्र भर चाहा किए तुझको खुदा से भी सिवा
यूँ नहीं दिल में मेरे तेरी रिहाइश हो गई

अब कहीं जाना बुतों की आशनाई कहर है
जब किसी अहले-वफ़ा की आज़माइश हो गई

घर टपकता है मेरा, अब अब्र वापस जाएगा
हम भरम पाले हुए थे और बारिश हो गई

जब तलक वो ग़ौर फ़रमाते मेरी तहरीर पर
तब तलक मेरे रक़ीबों की सिफ़ारिश हो गई


Saturday, April 10, 2010

लॉन्ग-ड्राइव

हमने कहा...''आज आठ अप्रैल है....''
''तो.....??''

''तो..!!!!!!!!!!!!!
...अरे कुछ नहीं...बस बता रहे हैं...कि आज आठ..."
उसकी मुस्काती आँखों में और भी मुस्कराहट भर गयी...और पास खड़ी पारुल को आँखों में और भी सस्पेंस...नन्ही पारुल ने पहले हमें देखा ..फिर एकदम उसी नज़र से उसे....और उसने झुक कर उसके कान में, शायद हमें सुनाकर कहा...''आज के दिन तेरे मामा की सगाई हुई थी..''
''हाँ, हमारी अकेले की सगाई हुई थी आज...तुम्हारी थोड़े ही हुई थी.....!"
''हाँ जी, हमने भी तो पारुल से यही कहा है के आज तेरे मामा की सगाई हुई थी...''

राम जाने...कब सुधेरेंगे हम....या कब सुधरेगी वो...

अब पारुल कि आँखों में शरारत देखते ही हमें होश आया....और हमने कुछ और ज़्यादा जल्दी दिखाते हुए श्रीमती जी से कहा..
''थोड़ा जल्दी कर लो....हम पहले ही लेट हैं..''
हमारे इतना कहते ही उसने और जल्दी दिखाई और जाने कितना उतावलापन मुस्काती आँखों में समेटे साथ चलने के लिए बाईक के साथ में आ खड़ी हुई....

''अरे रुको...ऐसे मत बैठो...वैसे बैठो..जेंट्स कि तरह ...! दोनों पाँव एक तरफ किये तो हम से बैलेंस ठीक से नहीं बनता...खामख्वाह कहीं तुम्हें गिरा गिरू देंगे...''
उसने धीरे से कान में कहा...'' यहाँ तो हम ऐसे ही बैठेंगे...चाहे आप गिरायें चाहे जो करें...आखिर अपना मुहल्ला है , कोई क्या कहेगा...?
हाँ, बाहर निकलकर जैसे कहेंगे वैसे बैठ जायेंगे....''

''अरे, तो क्या मुहल्ला ये भी बतलाता है कि बाईक पर किसे, कैसे बैठना है...? और कहीं चोट फेट लग गयी तो क्या मुहल्ला....???? "

'' फ़ालतू कि बात मत करो...कहा ना...बाहर निकलकर वैसे बैठ जाऊंगी...!!! "

अपनी बीस साल की मैरिड लाइफ , और कुल जमा तीन महीने की ''ड्राईविंग-लाइफ'' में परसों पहला मौक़ा था इस तरह से साथ साथ जाने का..
इस में भी मुहल्ला बीच में आन टपका....

खैर ,
बाहर मेन रोड पर निकलकर श्रीमती जी हमारी मनचाही मुद्रा में बैठने को राजी हुईं... और उन्हें मनचाहे पोज में आते ही हमने बाईक के लेफ्ट वाले शीशे का डायरेक्शन ट्रैफिक की तरफ से हटाकर अपुन दोनों के मुखमंडल की तरफ घुमा दिया.....अभी नैन-मटक्का शुरू ही हुआ था कि बायें से ब्लू-लाईन बस का तेज..अंतिम वार्निंग वाला होर्न सुनाई दिया.और हमें एक आदिकालीन...रीतिकालीन कवि की ....ना जी..उस समय तो समकालीन ही था , वो मशहूर लाईने याद आ गयीं...

पानी करा बुलबुला, अस माणूस की जात..
देखत ही छिप जाएगा, ज्यूँ तारा परभात..

............................और..............

और हमने वापिस बाईक के शीशे का मुंह उसकी पुरानी पोजीशन पर कर घुमा दिया....अब शीशे में चंद्रमुखी के स्थान पर वही उबाऊ ट्रैफिक नज़र आ रहा था ....

हटाने से पहले हम उसकी तरफ देख कर बुदबुदाए थे....'' बाकी सब बाद में..सबसे पहले सेफ्टी है..."

अभी भी उस चेहरे पर दमकती खुशियाँ हमारी आँखों में बंद थीं.....एक बेहद मामूली गड्ढे को देखकर हमने जोर से ब्रेक लगाए...एक छोटी सी चीख सुनाई दी कानों में...अगर ये ब्रेक नहीं लगता तो ये चीख काफी ऊँची हो सकती थी..
ज़िन्दगी के हर ऊँचे नीचे रास्ते में उसने कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया है हमारा...हर हाल में..हर घडी में..हर भले बुरे वक़्त में सहारा दिया है...ये बात और के अब दिल्ली के उबड़ खाबड़ रास्तों पर चलते वक़्त उसकी हालत खराब हो जाती है....अपने दायें काँधे पर नर्म हाथ का हल्का सा दबाव महसूस हुआ ,
हम जानते हैं कि ये दबाव उसका शुक्रिया है.. उस छोटे से गड्ढे का ध्यान रखने के लिए...उसे जोर से लगने वाले हिचकोले से बचाने के लिए..
आज वो बहुत खुश है...उसे कोई परवाह नहीं के अस्पताल में किस टेस्ट की क्या रिपोर्ट आयेगी...कौन सी नई बीमारी की पोल खुलेगी....क्या होगा...उसे कोई मतलब नहीं....

कान में धीरे से फुसफुसाहट हुई....''आज हम पहली बार लॉन्ग-ड्राइव पर जा रहे हैं...''
''हाँ,..पर ...क्या अस्पताल जाना भी तुम्हारे लिए लॉन्ग-ड्राइव की मस्ती है..?''


काँधे पर फिर एक हल्का सा दबाव पड़ता है ..और हम फिर शीशे का डायरेक्शन ट्रैफिक से हटा कर हम दोनों के चेहरों कि तरफ कर देते हैं.....

पानी केरा बुलबुला.....!!

नहीं....!!!
पास से एक थ्री-व्हीलर गुजरा है लता की आवाज़ में डूबा...

कह दो बहारों से आयें इधर...
उन तक उठ कर हम नहीं जाने वाले....