बे-तख़ल्लुस

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'बेतख़ल्लुस' हूं मुझे कोई भी अपना लेगा

manu

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Monday, February 16, 2009

जुनूने-गिरिया का ऐसा असर भी, मुझ पे होता है
कि जब तकिया नहीं मिलता, तो दिल कागज़ पे रोता है

अबस आवारगी का लुत्फ़ भी, क्या खूब है यारों,
मगर जो ढूँढते हैं, वो सुकूं बस घर पे होता है

तू बुत है, या खुदा है, क्या बाला है, कुछ इशारा दे,
हमेशा क्यूँ मेरा सिजदा, तेरी चौखट पे होता है

अजब अंदाज़ हैं कुदरत, तेरी नेमत-नवाजी के
कोई पानी में बह जाता, कोई बंजर पे रोता है

दखल इतना भी, तेरा न मेरा उसकी खुदाई में
कि दिल कुछ चाहता है, और कुछ इस दिल पे होता है |

Monday, February 9, 2009

आदत

कल परसों की बात......चला जा रहा था यूँ ही कहीं...मोबाईल फोन कानो से लगा था...किसी अजीज से बात करता जा रहा था.....रास्ता एक दम सुनसान था.....ना कोई आदमी , न बस्ती...ना कोई मुहल्ल्ला ...बस सुनसान राह...एक दम अकेली ..वीरान..सुनसान.......... बस मेरे और मेरे दोस्त के अलावा ( बल्कि वो दोस्त भी तो फोन पर ही था.)...उस वीराने में एक आदमी टमाटर की रेहडी हांके जा रहा था...जोरों से चीखता........
"टमाटर ले लो...........टमाटर वाला..........""
लाल रंग के देसी टमाटर ...कहीं हल्का सा हरा -पीला पॅन लिए मुझे वो स्वाद याद दिला रहे थे जो के होता है इन देसी टमाटरों में...एकदम खालिस ...देसी खट्टापन लिए.....के गाजर आलू की सब्जी में दो छोटे टमाटर काट पीस के डाल दो ...और सब्जी जायकेदार......अक्सर ये गाजेर वाली सब्जी अपने ही मिजाज के हिसाब से स्वाद या बे स्वाद बनती है.....बनाने वाले का कोई खास महत्त्व नही होता चाहे कितना ही जोर लगा लिया जाए......जैसी इसने बनना होता है....वैसी ही बनती है............पर अगर ये देसी टमाटर इस में पड़ जाए तो...कुछ उम्मीद सी बाँध जाती है ....के उतनी ख़राब तो नही बनेगी....जितनी बन जाती है ...आमतौर पर... खैर............उसकी बा बुलंद आवाज़ से मैं कुछ डिस्टर्ब सा हुआ फोन पर....मैंने उसे कहा......
" अमा यार , क्यूं चिल्ला रहे हो गला फाड़ फाड़ के...थोडा आराम से....धीरे...से.. ओ .के ...."
दोस्त शायद समझ चुका था हमारी बातें...........तो बोला....
"उसकी रोजी-रोटी है मनु....ऐसे क्यूं बोल रहे हो बेचारे को........? "
मैंने कहा के यार ना तो तुमसे बात करने दे रहा है...खामख्वाह चीख रहा है.....तुम तो दूर फोन पर हो...पर मुझे पता है के....जहाँ खडा हो कर ये चिल्ला रहा है..वहाँ न तो कोई गली मुहल्ल्ला है ...ना बस्ती...ना आदमी ..न आदमी जैसा कुछ और...........जिसे इन देसी टमाटरों से कोई लेना-देना हो ....इसलिए टोका है इस को....... 

" और तुम क्या कर रहे हो.............?????" जहाँ पर तुम इतने दिन से अपना गला फाड़ फाड़ कर चीख रहे हो......? वहाँ पर कौन है सुन ने वाला...??कौन सी आदमियों की बस्ती है ...? कौन सा मोहल्ला है....? कौन है जो तुम्हें सुन रहा है....? पर ठीक है ....आदत हो जाती है यूँ चीखने की......जैसी तुम्हें है ...ऐसी ही इसे भी होगी....."

टमाटर वाला मुझे सुनकर चुप लगा गया था... और मैं अपने दोस्त की बात सुन कर खामोश हो गया था........... दोनों ही शायद सोच रहे थे...के हम क्यूं चीख रहे हैं.........और कहाँ चीख रहे हैं................. सन्नाटा और भी सुनसान हो गया था.......वीरानी ..पहले से भी ज़्यादा वीरान हो चली थी....

हां,........ज़रा दूरी से गुजर रही,,,,,कोई हैरान सी ,मायूस सी...कविता जरूर देखे जा रही थी .......हल्का सा हरापन लिए ..लाल-लाल देसी टमाटरों को.......