काफी वक़्त से लग रहा था कि कोई ग़ज़ल नहीं हुई है..अभी पिछली फुरसतों में कुछ डायरियां,कागज़ के पुर्जे ,कापी-किताबें वगैरह देखना हुआ ... तो जाने कब कैसे किस बेखुदी में लिखी ये ग़ज़ल..कुछ और शे'र भी बरामद हुए..शायद ४-६ महीने पहले के हैं..
आपकी खिदमत में पेश हैं...
पहले खुद की फिर ज़माने की नज़र से देखना
कुछ नहीं समझो तो फिर मेरी नज़र से देखना
जान कर अनजान को वैसी नजर से देखना
जी जलाए है तेरा ऐसी नज़र से देखना
प्यास को काबू में रख, प्यासी नज़र से देखना
तू कभी प्याले को साकी की नज़र से देखना
और खुशफहमी बढ़ा देता है यारब, उनका वो
पढ़ कलाम अपना मुझे उडती नज़र से देखना
सुर्खिये लब जिनकी ठहरी सुर्खियाँ हर शाम की
सुब्हे-दम वो सुर्खी तू पैनी नज़र से देखना
उस नज़र में 'बे-तखल्लुस' खो गया सारा जहां
मुझ में खोकर वो मुझे खोई नज़र से देखना