एक ग़ज़ल ... बे-kaafiyaa ग़ज़ल...
करवा चौथ par...
शे'र क्या रुक्न भी होता है मुक्कमल मेरा
कुफ्र कहते हो जिसे तुम, कभी दीवानापन
कुछ नहीं और, है ये तौर-ऐ-इबादत मेरा
रश्क होता है फरिश्तों को भी आदम से तो फिर
बोल क्यों खटके मुझे रूतबा-ऐ-आदम मेरा
रात जो हर्फ़, तमन्ना में नया लगता है
सुबह मिलता है वोही हर्फ़-ऐ-मुक़र्रर मेरा
और गहराइयां अब बख्श न हसरत मुझको
कितने सागर तो समेटे है ये साग़र मेरा
आह निकली है ओ यूं दाद के बदले उसकी
कुछ तो समझा वो मेरे शे'र से मतलब मेरा