महा यक्षिणी अनन्या
ने गर्व से भरे हुए अपने मुख को तनिक और तानते हुए उस मनुष्य की ओर प्रेम
भरी दृष्टि डाली और अपनी बायीं भुजा उठाते हुए एक दिशा में संकेत किया !
उसकी कोमल भुजा के नीचे से जाती हिम से ढके भूभाग पर फिसलती हुई मनुष्य की
दृष्टि अनन्या के अंगूठे के साथ जुडी सामंती तर्जनी द्वारा दिखाए जा रहे
लक्ष्य तक जा पहुंची ! दोनों नयन क्षण भर के लिए सूर्य के तीव्र प्रकाश से
टिमककर, तनिक सहमकर, स्वयं को प्रत्येक परिस्थिति के लिए दृढ करते हुए,
अनन्या की तर्जनी की एकदम सीध में लक्षित श्वेत कमल पर जा रुके ! अनन्या का
अंगूठा उस समय विचित्र स्थिति में था, परन्तु यह उस समय कोई ध्यान देने का
विषय नहीं था ! अभी तो मनुष्य के सौन्दर्य-प्रिय नेत्र केवल उस श्वेत
पुष्प की अद्वितीय छटा के दर्शन कर रहे थे ! यह औसत से कुछ बड़ा एक श्वेत
कमल पुष्प था, जो इतना अधिक अलौकिक एवं प्राकृतिक था मानो स्वयं महा
यक्षिणी अनन्या..!! कदाचित इस अनूठे पुष्प की सुन्दरता पर मुग्ध हो इस महा
सुंदरी अनन्या ने मनुष्य के अनकहे प्रेम निवेदन को तनिक कहकर स्वीकारते हुए
केवल इस पुष्प को अपने लिए तोड़ लाने का निवेदन किया था ! इस निवेदन में
यद्पि कोई आदेश नहीं था, प्रेम के बदले पुष्प जैसा कोई आदान प्रदान भी नहीं
था! केवल एक सुन्दर फूल पर रीझ उठी उस सहज सुंदरी की सहज प्रवृत्ति मात्र
थी, जो निसंदेह ही महा यक्षिणी अनन्या के अद्वितीय रूप पर शोभा भी देती थी !
कुछ देर और फूल का सौन्दर्य पान करने के पश्चात् मनुष्य की शांत दृष्टि
हिम से ढके भूभाग पर उसी मार्ग से अनन्या की तर्जनी के अग्रभाग तक वापस
लौटी थी ! किसी भी वस्तु को ऐसे ही देखना उसका स्वभाव था, मानो वह अपने
विचार और बाह्य सौन्दर्य को एक सीध में देखना चाह रहा हो ! अनन्या का
अंगूठा अब भी उसी विचित्र स्थिति में था और मनुष्य ने अब भी उस पर कोई
ध्यान नहीं दिया था ! उसकी शांत दृष्टि तो और भी अधिक स्निग्धता लिए अनन्या
की कोमल सामंती तर्जनी के अग्रभाग पर क्षण भर विश्राम सा करने के पश्चात्
पुष्प से भी कोमल हथेली से चिपकी बाकी तीनों उँगलियों को स्पर्श करते हुए
..ऐसा स्पर्श जिसका प्रभाव विचित्र स्थिति में तर्जनी से चिपके अंगूठे पर
भी एक बार हुआ था ! सफ़ेद कलाई के उठान से चुंधिया कर , अंगूठे की जड़ में
संजोये हलके अन्धकार का उपकार लिए, अनन्या की उठी दिव्य भुजा पर, बल्कि
कहें तो भुजा के दिव्यरूप की एकरसता को तोड़ते हुए भुजबंद पर रुक गयी !
विधाता द्वारा रची गयी महा सुंदरी अनन्या की दिव्य भुजा पर पृथ्वी के किसी
प्राणी द्वारा बनाया हुआ भुजबंद...!!!
भुजबंद..!! जिसके निचले लटकाव पर सूर्य के तेज से बचता हुआ
एक छोटा...औसत से तो बहुत ही छोटा श्वेत पुष्प अनन्या की सुन्दर सामंती
बांह के नीचे भी निडरता से बह रही पवन में कितनों की ही इच्छाओं का पालन
करते हुए झूल रहा था...शायद स्वयं की इच्छा से ही...और आश्चर्य ....कि
अनुभवी मनुष्य की दृष्टि जान ही नहीं पा रही थी कि वह श्वेत पुष्प उसकी
इच्छा से पवन में हिचकोले ले रहा है अथवा स्वयं उसकी दृष्टि उस पुष्प की
किसी इच्छा से उसकी ही गति अनुसार दायें-बायें हो रही है...कभी कभार तनिक
आगे और बहुत ही कभी मामूली पीछे भी ! विचार अनंत थे उस समय ..और उन सब की
परिभाषाएं भी अनंत थीं ! अभिलाषाएं उस समय स्तब्ध थीं....और प्रेम......!!!
वह जान ही न सका कि प्रेम
स्तब्ध हो चुका है अथवा समस्त अनंतों में अनंत हुए जा रहा है
.................
अब मनुष्य की दृष्टि औसत से
कुछ बड़े श्वेत कमल को तो देख रही थी..और स्वभावतः जो मार्ग महा यक्षिणी की
सामंती उंगली ने उसे दिखाया था..उसी मार्ग से लौटते हुए अब उसकी दृष्टि इस
तर्जनी ऊँगली पर ही नहीं आकर नहीं रुक रही थी ! लक्ष्य पर जाकर एकदम उसी
मार्ग से वापस लौटना उस मनुष्य दृष्टि का स्वभाव था किन्तु प्रथम बिंदु
.जहां से वह लक्ष्य तक पहुंची थी..लौटते समय जाने क्यूं वह इस प्रथम बिंदु
से भी कुछ इधर ही आ भटकी थी ! अब विचार भी स्तब्ध थे..और उनकी
परिभाषाएं....!......और फिर अभिलाष.........!!!!!
छोटे से वायु मंडल में जानी अजानी इच्छाओं के साथ
हिचकोले खाता वह औसत से तो बहुत ही छोटा पुष्प प्रत्येक विचार, और विचारों
की विविध परिभाषाओं के प्रमाणों से मुक्त मनुष्य की ओर देखकर मानो उसे कुछ
स्मरण करा रहा था ! मनुष्य उस समय विवश हो गया था उस शुभ्र पाषाण को सोचने
के लिए, जिसकी प्राकृतिक संरचना में उभरी रेखाओं में उसे ऎसी ही दिव्य बांह
दिखाई दी थी ..
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पृथ्वी .....!!! मानो अनेक आत्माओं
के अनगिनत रंगों से मिलाकर विधाता ने सुन्दर चित्र बनाया हो और बना चुकने
के पश्चात् किसी अनिच्छा अथवा किसी इच्छा से उसके अरबों खरबों टुकड़े कर
दिए हों ! उसके पश्चात् वे सब टुकड़े शायद अनिच्छा से ही इधर उधर उलटे सीधे
जोड़कर वह चित्र दोबारा बनाया हो और पृथ्वी पर चिपका दिया हो ! इच्छा एवं
अनिच्छा से बने उस चित्र के अलग अलग कटे-बंटे हुए अंश मानो इस अज्ञात
अनिच्छा को न समझते हुए अपने पुराने रूप में वापस लौट आने को लालायित हो
उठे हों ! शायद इच्छा एवं अनिच्छा के इस विचित्र संयोग से बना हो यह पृथ्वी
का जीवन चित्र..!! और जैसे प्रत्येक अंश अपने इर्द गिर्द कुछ अनचाहे
चित्र-अंश पाकर असहज हो उठा हो ! अपने पास के जो थोड़े बहुत हिस्से संयोग
वश उसके आकार और प्रकृति से मेल खा रहे हैं..वे सब उसके लिए सुन्दरता हों
और जो अंश उसके अनुरूप नहीं हैं वे.....!! वे सभी अंश जाने क्यूँ उसे
कुरूप, पृथ्वी पर व्यर्थ बोझ, उसे तिलमिला देने की सीमा तक कष्ट देने वाले
लगते ! यहाँ तक कि उसकी बुद्धि कभी भी उन्हें मात्र संयोग तक मानने को
तैयार तक न हो पाती ..यद्पि अब उन सब बेमेल अंशों को जड़मूल सहित नष्ट किये
जाने की उसकी चाह काफी हद तक कम हो गयी थी , फिर भी स्वयं को अपनी तरह
से पूर्ण करने की चाह में अपने अतीत के अंशों की खोज में किसी अनजान स्थान
पर,अनजान दिशाओं में चल देना चाहता था !
उसे राजा से आदेश मिला था कि वह राज्य के
विशिष्ट मंदिर में स्थापित राज्य की प्रमुख देवी की शुभ्र प्रतिमा को
पुनः छील-तराश कर उसका शताब्दियों के बोझ के नीचे दब चुका सौन्दर्य नए रूप
में प्रस्तुत करे...और ऐसे प्रस्तुत करे कि आने वाले समय की
पीढियां इस राजा को भी उस देवी जैसी ही श्रद्धा के साथ याद करे ...यह
राजाज्ञा सुनकर छिन्न-भिन्न एवं मलिन देवी प्रतिमा पर से उसकी दृष्टि
राजसिंहासन तक गयी थी..और प्रत्येक पार्षद के नकली मुस्कान धारण किये मुख
से होती हुई वापस देवी तक आई थी ..जैसा कि उस की दृष्टि का स्वभाव था ! अब
तक मलिन हो चुके किसी समय बहुत ही अधिक श्वेत रहे पाषाण से आगे जाने का
सामर्थ्य मनुष्य की आँखों में नहीं था..फिर भी एक संतोष था कि सदा चाटुकार
पार्षदों से घिरे रहने वाले दूरदर्शी राजा की दृष्टि उस की कला पर पड़ ही
गयी थी ..विचित्र सा यह संतोष राजा की 'दूर' वाली दूरदृष्टि तथा निकट वाले
चाटुकारिता भरे मुख-मंडलों पर भारी था ! अब वह कतई नहीं सोच रहा था कि यदि
राजा वास्तव में दूरदर्शी है तो उसे उसके समीप रहने वाले राज-पार्षदों के
हाव-भाव से वह सब क्यूँ नहीं दिखता जो उसे दिखता है.
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देवी की प्रतिमा पर समय के कारण चढ़ी असुन्दरता को
जल्द ही उसने निरंतर श्रम एवं अपने बड़े से बसौले की सहायता से छील कर पुनः
लगभग समतल पाषाण में बदल दिया था ! कतई समतल तो नहीं कहा जा सकता ..तथापि
एक ऐसा ढांचा अवश्य ही बन गया था जिसे चाहे तो वैसे ही प्राचीन आकार में
नए सिरे से ढाला जा सकता था अथवा चाहे तो किसी भी अनूठे ढंग से उसका काफी
सीमा तक रूप बदला जा सकता था ! यह बात अलग थी कि राजाज्ञा में उससे यह
आवश्यक अपेक्षा की गयी थी कि आने वाली संतानें उस प्रतिमा की भाँति ही इस
राजा का भी श्रद्धा से स्मरण करें !
उस दिन तडके भोर के समय तक भी वह उस ढाँचे को नए
सिरे से प्रतिमा में ढालने की तैयारी कर रहा था ! सूर्य अभी उदय नहीं हुआ
था ! हलके अन्धकार एवं हलके प्रकाश में उसने देवी-प्रतिमा की चारों भुजाओं
को एक खुरदरा आधार देने का कार्य संपन्न किया था ! पूर्णिमा से पहले वाली
रात्रि उसने अनवरत एक छोटी बसौली पर छोटे हथौड़े से प्रहार पर प्रहार करते
व्यतीत की थी ! प्रतिमा के कटि-प्रदेश का ऊपरी भाग अनगढ़ ही सही परन्तु एक
सुन्दर आकार ले चुका था ! उसने विश्राम करने हेतु अभी हथौड़ा रखा ही था कि
प्रतिमा की दाहिनी ओर की भुजाओं के साथ उसे एक तीसरी भुजा दिखी ! क्षण भर
को वह चकित रह गया ! उसने अपने मस्तिष्क पर हाथ रख कर अनुभव करना चाहा कि
कहीं अत्यधिक श्रम से उसका शरीर इतना तो नहीं थक गया कि उसे अपने अभी चल ही
रहे कार्य के प्रति भी संदेह होने लगे...! जब वह कुछ न समझ सका तो
स्वयं यंत्रवत चलता हुआ देवी-प्रतिमा के समीप जा पहुंचा , जैसे कोई विचार
ही शेष न रह गया हो जिस पर उसकी स्वाभाविक दृष्टि उसके हाथ के नीचे स्थित
मस्तिष्क तक लौट सके !
हाँ.....! यह देवी की पांचवीं भुजा ही थी जो दाहिनी
ओर की दोनों भुजाओं के साथ ही दृष्टिगोचर हो रही थी ! और अधिक निकट
पहुंचने पर उसने देखा कि यह भुजा उसकी छोटी बसौली-हथौड़े के प्रहारों से
नहीं बनी है बल्कि इस श्वेत पाषाण पर प्राकृतिक रूप से बनी है ! प्रतिमा के
बाहरी सपाट भाग पर कुछ गहरी श्याम-वर्ण प्राकृतिक रेखाएं हैं जो इस श्वेत
पाषाण पर भुजा की आकृति सा कुछ बना रहीं हैं ! एक बार उसकी दृष्टि उसके
द्वारा रची गयी दोनों दाहिनी भुजाओं पर, तत्पश्चात दोनों बायीं ओर की
भुजाओं पर गयी ! फिर कुछ पग पीछे की ओर वहाँ जाकर, जहां उसे विश्राम करना
था, उसने समूची प्रतिमा पर मानो एक निर्णायक सी दृष्टि डाली ! उसके अथक
परिश्रम से बनी देवी की चारों भुजाएं..बल्कि कहें तो समूची प्रतिमा ही उस
अनूठी,अनचाही प्राकृतिक भुजा के समक्ष हर प्रकार से अर्थहीन लग रहीं थीं !
उसके हाथ एक बार फिर अपने मध्यम आकार वाले बसूली-हथौड़े की ओर बढे ही थे कि
वह स्वयं की निर्णायक दृष्टि पर संदेह कर बैठा !
नहीं.....!!!....अभी नहीं.....!! कितना परिश्रम
किया है इन चारों भुजाओं को देवी प्रतिमा में उचित ढंग से ढालने में ...!!
रात-दिन न तो आहार की चिंता की है और न ही निद्रा की ! अपनी देह के
प्रत्येक संतुलन को बिसरा कर ही तो देवी-प्रतिमा का अंग-प्रत्यंग कितना
संतुलित बनाया है ! इतने सब पर कोई भी व्यर्थ का विचार कैसे हावी हो सकता
है ..? वह भी ऐसा विचार ..जिसका अस्तित्व संभवतः उसका ही दृष्टि-दोष हो
..!! कितना अमूल्य समय नष्ट करके बनायी प्रतिमा को इतनी शीघ्रता से लिए गए
निर्णय से ध्वंस्त नहीं किया जा सकता ! कैसे हो सकता है कि चारों भुजाओं को
फिर से सपाट कर देने के बाद इस पांचवीं भुजा के समान ही तीन और भुजाएं भी
मिल ही जाएँ ? कौन जाने कि पूर्णिमा की रात्रि के बाद जाता हुआ चंद्रमा ऐसा
अनिश्चितता से भरा वातावरण पृथ्वी पर और भी स्थानों पर काढ कर जाता हो..!!
कहना कठिन है कि मानव-शरीर चेतन मस्तिष्क के आदेश
पर कार्य करता है अथवा अवचेतन मस्तिष्क के..? हो सकता है कभी यह शायद बिना
किसी आदेश के भी कार्य करता हो..! कितनी ही बार ज्ञात नहीं हो पाता कि
कहाँ से उठे, किस विचार के प्रभाव में आकर मानव प्रत्येक विचार से पूर्णतयः
प्रभावहीन होकर कोई कार्य करने लगता है ! इसी प्रकार शायद मनुष्य के
हाथों ने जाने कब पाषाण की उबड़-खाबडता को छीलने वाला बड़ा बसौला भूमि पर धर
दिया और कब उसके हाथों में छीले कटे समतल पाषाण को सुघड़ आकार में ढालने
वाली छोटी सी बसौली आ गयी ! अभी तक किये गए पूरे कार्य में यह समय ऐसा था
जब उसे बहुत बुरी तरह थका होने के पश्चात् भी सबसे अधिक स्फूर्ति का अनुभव
हो रहा था ! क्षुधा ,निद्रा एवं श्रम से निढाल होते उसके शरीर में ऐसे नवीन
रक्त का संचार हुआ था मानो अभी उसकी आयु १३-१४ वर्ष की ही हो !....Cont...