माफ़ करें महोदय, आपके ब्लॉग पर पहुंचा..कुछ बातें समझ आईं जो बतानी आवश्यक हैं. आशा हैं आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे...
अश'आर नहीं गाए जाते...अश'आर का कोई निश्चित बंद नहीं होता, अश'आर के निश्चित बंद से ही ग़ज़ल या अन्य विधाएं बनती हैं...... रचना और संगीत की सम्बद्धता ही गायन की निश्चित और महत्वपूर्ण शर्त हैं...
मनुजी, हा हा हा आलोचक भी है। सार्थक लेखन हुआ जी फिर। गौर करिये। वैसे यह ठीक नहीं है कि पोस्ट डाली और डिलिट कर डाली। आपको पढना रहता है। इस बात की खबर भी रखें जी आप। मीनाकुमारी का श'अर या शे'र जो भी है जैसा भी है जब कोई चीज याद आती है तो उसे हूबहू वैसा ही लिख दिया जाये जैसा वो था जरूरी नही होता। याद आना और फिर लिखना गलत भी हो सकता है। इसलिये आलोचक महोदय के कमेंट से मैं तो इत्तेफाक़ नहीं रख सकता हां, सुधार करने के लिये उन्हें धन्यवाद जरूर दिया जा सकता है। उनकी स्मृति पुष्ट हो सकती है। वैसे हमने मीनाकुमारी के इस शे'र, श'अर को इसके पहले पढा नहीं है सो दोनों ही तरह के ठीक लगे। अमिताभ
बे-तख़ल्लुस साहब, अरे !! नाम में ही खटका !!!!!!! ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ, क्यों हुआ, जब हुआ, तब हुआ .... ये तो बहुत पुरानी बात हो गई.. चलिए..सेर को सवा सेर आखिर मिला तो सही..... शुक्रिया निशांत कौशिक जी, लेकिन, अगर मनु जी ने लिखा है तो वजह-ए-तख़ल्लुस होगी...पक्की बात है :):) फिकिर नाट.... हाँ नहीं तो....!!
सही शब्द है... "तख़ल्लुस" ........... अब भी नहीं लिखा गया हमसे....सो आपका लिखा ही कोपी-पेस्ट किया है..
और खैरात के साथ ज़ाहिर है के सदका ही आयेगा...सजदा नहीं...
लेकिन इसे भी एडिट करना मुश्किल काम है हमारे लिए..... पधारने से ज्यादा सुझाने के लिए आपका तहे दिल से आभार...
@ अमिताभ जी, शाहिद जी... बेशक..वो पोस्ट हमने रात में लिख कर एक मिनट के भीतर ही डिलीट कर दी...क्यूंकि हमारे ऊपर गृह-मंत्रालय का बड़ा दबाव आ गया था..... अतः समय मिलते ही थोड़ी बेबाकियां कम करते हुए फिर लिखूंगा वो पोस्ट....
प्रिय श्रीवास्तव जी, मैं आलोचक नहीं एक पाठक मात्र हूँ ...बहैसियत जिस सार्थक पोस्ट के मुताल्लिक चर्चा कर रहे हैं आप वहां पोस्ट है कहाँ ? बस मीना कुमारी का श'अर लिखा है..वो भी गलत.सदके और सजदे में फर्क होता है, और यदि ब्लॉग है तो पढना ही होगा, पढ़ा और कमेन्ट दे दिया. पोस्ट डिलेट करने का कारण क्या है क्या नहीं, इससे में जुड़ना नहीं चाहता...हो सकता है श'अर में कुछ शब्दों में आगा पीछा और फेर हो जाये विस्मृति के कारण, यह कुछ गलत नहीं. मगर किसी श'अर में "खिलाफ" को "खिलाफत" करेंगे तो फर्क पड़ता है.
खैर...आपने शेर और श'अर के मुताल्लिक भी कुछ संकेत दिया, श'अर हिंदी में उच्चारित कर सकते हैं, किन्तु मूल उर्दू में अरबी हर्फ़ "ऍन" का प्रयोग होने के कारण इसे श'अर कहा जाता है.
सच्चा पाठक तो वही है जो सही को सही और गलत को गलत कहे. उसी तरह अच्छा लेखक भी वही है जो गलत को गलत मान ले. मनु जी ने गलती मान ली तो फिर क्या शेष रह गया..! पोस्ट तो पोस्ट है फिर चाहे एक शेर का ही क्यों न हो..! हम भी अभी सीख रहे हैं ऐसे पाठक मिलें तो कुछ ज्ञान बढ़े.
निशांत साहब... आप कह सकते हैं कि पोस्ट नहीं है... शायद आपका कहना ठीक भी है.... जब ब्लॉग बनाया था तो रोज एक शे'र या अपना कोई भी ख़याल डालने कि आदत थी...जो कि धीरे धीरे ख़त्म होती गयी... उस वक़्त ये ब्लॉग सिर्फ..एक रोजमर्रा की डायरी जैसा हुआ करता था...... आज भी कुछ ख़ास नहीं है...
पर अब भी कभी दिल करता है कि दूरदर्शन पर पंकज कपूर का ''फटीचर''........या फारुख शेख का ''श्रीकांत'' किसी तरह कहीं देखने को मिल जाए....... कई बार हाथों के सामने रखा की-बोर्ड..और नज़र के सामने कंप्यूटर स्क्रीन..... ऐसा मंज़र पैदा कर देते हैं जैसे..हाथ में ब्रश और कलर पैलेट हो.. और सामने विशाल कैनवास.....अपनी सोच से बहुत विशाल...... तब क्या होता है......!!!
कैनवास बेचारा बदरंग हो जता है....... गहरे रंग जैसा भी कुछ बना था.....उसे मोटी तहों में ढांप देते हैं....रंग एक तरफ फेंक दिए जाते हैं....पैलेट टूट जाती है... और अपनी नयी नाकामी को सेलिब्रेट करने के लिए..एक नया जाम और भर जाता है खुद ब खुद...
अब कभी कभार ही इस पर कुछ लिख पाते हैं.....इसे पोस्ट कह लीजिये..या पहले की तरह मन में उठा सिर्फ एक ख्याल....
जो शायद सिर्फ और सिर्फ हमारे लिए मायने रखता है.....अगर यह किसी और के लिए भी कोई मायने रखता तो शायद पोस्ट कहला सकता था..
हाँ, शे'र जो है वो अलिफ़ के बजाय "ऍन",,( आपका लिखा ही कोपी पेस्ट किया है ये भी.....) हमसे तो एन लिखा जा रहा है बस.... श'अर कहा जता हो..पर बोलने में शेर या श'अर नहीं....शे'र आयेगा हमारे ख्याल से...
अश'आर के निश्चित बंद वगैरह के बारे में हम नहीं जानते...क्यूंकि ग़ज़ल कभी ग़ज़ल की तरह नहीं जानी है हमने...
और अश'आर गाये नहीं जाते...इस बात पर हम किसी से भी सहमत नहीं हो सकते......
ash'aar shayad ek se jyada sher ke liye istemaal hoga, uske baad kai naam diye ja skte hain, rubai jismein do ash'aar hote hain, qat'aa, gazal.. Par is baat se main ittefaq nahi rakhti ki ash'aar gaye nahi ja sakte, dekha jaye to agar aap ek sher bhi kahenge to usmein bhi behrbandi honi chahiye, warna jo dil chahe karein, koi kisi ko rokne thode aata hai.
16 comments:
माफ़ करें महोदय, आपके ब्लॉग पर पहुंचा..कुछ बातें समझ आईं जो बतानी आवश्यक हैं. आशा हैं आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे...
अश'आर नहीं गाए जाते...अश'आर का कोई निश्चित बंद नहीं होता, अश'आर के निश्चित बंद से ही ग़ज़ल या अन्य विधाएं बनती हैं......
रचना और संगीत की सम्बद्धता ही गायन की निश्चित और महत्वपूर्ण शर्त हैं...
शब्द सुधारें...सही शब्द होगा "तख़ल्लुस"
और मीना कुमारी का श'अर गलत लिखा है
इसका मिस्रा ए सानी यूँ है
"सदके की सहर होती है"
यहाँ 'सजदे' नहीं होगा....
Nishant kaushik
अभी देखना क्या क्या सुनना पड़ेगा....
और डालो...और डिलिट करो....
मनु जी ..मान भी जाईये..
मनुजी,
हा हा हा आलोचक भी है। सार्थक लेखन हुआ जी फिर। गौर करिये। वैसे यह ठीक नहीं है कि पोस्ट डाली और डिलिट कर डाली। आपको पढना रहता है। इस बात की खबर भी रखें जी आप। मीनाकुमारी का श'अर या शे'र जो भी है जैसा भी है जब कोई चीज याद आती है तो उसे हूबहू वैसा ही लिख दिया जाये जैसा वो था जरूरी नही होता। याद आना और फिर लिखना गलत भी हो सकता है। इसलिये आलोचक महोदय के कमेंट से मैं तो इत्तेफाक़ नहीं रख सकता हां, सुधार करने के लिये उन्हें धन्यवाद जरूर दिया जा सकता है। उनकी स्मृति पुष्ट हो सकती है। वैसे हमने मीनाकुमारी के इस शे'र, श'अर को इसके पहले पढा नहीं है सो दोनों ही तरह के ठीक लगे।
अमिताभ
बे-तख़ल्लुस साहब,
अरे !!
नाम में ही खटका !!!!!!!
ये क्या हुआ, कैसे हुआ, कब हुआ, क्यों हुआ, जब हुआ, तब हुआ ....
ये तो बहुत पुरानी बात हो गई..
चलिए..सेर को सवा सेर आखिर मिला तो सही.....
शुक्रिया निशांत कौशिक जी,
लेकिन, अगर मनु जी ने लिखा है तो
वजह-ए-तख़ल्लुस होगी...पक्की बात है :):)
फिकिर नाट....
हाँ नहीं तो....!!
जी हाँ..ताहम साहब..
आपने सही कहा...
सही शब्द है... "तख़ल्लुस" ...........
अब भी नहीं लिखा गया हमसे....सो आपका लिखा ही कोपी-पेस्ट किया है..
और खैरात के साथ ज़ाहिर है के सदका ही आयेगा...सजदा नहीं...
लेकिन इसे भी एडिट करना मुश्किल काम है हमारे लिए.....
पधारने से ज्यादा सुझाने के लिए आपका तहे दिल से आभार...
@ अमिताभ जी, शाहिद जी...
बेशक..वो पोस्ट हमने रात में लिख कर एक मिनट के भीतर ही डिलीट कर दी...क्यूंकि हमारे ऊपर गृह-मंत्रालय का बड़ा दबाव आ गया था.....
अतः समय मिलते ही थोड़ी बेबाकियां कम करते हुए फिर लिखूंगा वो पोस्ट....
बे-तख़ल्लुस साहब,
अब तो ये भी ठीक करना पड़ेगा...आपके ब्लॉग पर....
मेरे अश'आर कोई भी,कहीं भी गा लेगा..! 'बे-तक्ख्ल्लुस' हूँ मुझे कोई भी अपना लेगा..!!
जी नहीं मैडम.....
ये कभी ठीक नहीं किया जाएगा...
ये लाईने सदा ऐसे ही रहेंगी...
इस ब्लॉग का रंग रूप सदा ऐसे ही रहेगा...
हुन्न्नन्न्न्नन्न ......nice .....!!
बहरहाल जनाब ये तो बताइए .....पोस्ट डिलीट करने के बाद आपको यही शे'र क्यों याद आया ......खैरात वाला .....ये कौन है जो रात खैरात में देने लगा .....????
प्रिय श्रीवास्तव जी, मैं आलोचक नहीं एक पाठक मात्र हूँ ...बहैसियत जिस सार्थक पोस्ट के मुताल्लिक चर्चा कर रहे हैं आप वहां पोस्ट है कहाँ ? बस मीना कुमारी का श'अर लिखा है..वो भी गलत.सदके और सजदे में फर्क होता है, और यदि ब्लॉग है तो पढना ही होगा, पढ़ा और कमेन्ट दे दिया. पोस्ट डिलेट करने का कारण क्या है क्या नहीं, इससे में जुड़ना नहीं चाहता...हो सकता है श'अर में कुछ शब्दों में आगा पीछा और फेर हो जाये विस्मृति के कारण, यह कुछ गलत नहीं. मगर किसी श'अर में "खिलाफ" को "खिलाफत" करेंगे तो फर्क पड़ता है.
खैर...आपने शेर और श'अर के मुताल्लिक भी कुछ संकेत दिया, श'अर हिंदी में उच्चारित कर सकते हैं, किन्तु मूल उर्दू में अरबी हर्फ़ "ऍन" का प्रयोग होने के कारण इसे श'अर कहा जाता है.
Nishant kaushik
www.taaham.blogspot.com
सच्चा पाठक तो वही है जो सही को सही और गलत को गलत कहे. उसी तरह अच्छा लेखक भी वही है जो गलत को गलत मान ले. मनु जी ने गलती मान ली तो फिर क्या शेष रह गया..! पोस्ट तो पोस्ट है फिर चाहे एक शेर का ही क्यों न हो..!
हम भी अभी सीख रहे हैं ऐसे पाठक मिलें तो कुछ ज्ञान बढ़े.
निशांत साहब...
आप कह सकते हैं कि पोस्ट नहीं है...
शायद आपका कहना ठीक भी है....
जब ब्लॉग बनाया था तो रोज एक शे'र या अपना कोई भी ख़याल डालने कि आदत थी...जो कि धीरे धीरे ख़त्म होती गयी...
उस वक़्त ये ब्लॉग सिर्फ..एक रोजमर्रा की डायरी जैसा हुआ करता था......
आज भी कुछ ख़ास नहीं है...
पर अब भी कभी दिल करता है कि दूरदर्शन पर पंकज कपूर का ''फटीचर''........या फारुख शेख का ''श्रीकांत'' किसी तरह कहीं देखने को मिल जाए.......
कई बार हाथों के सामने रखा की-बोर्ड..और नज़र के सामने कंप्यूटर स्क्रीन..... ऐसा मंज़र पैदा कर देते हैं जैसे..हाथ में ब्रश और कलर पैलेट हो..
और सामने विशाल कैनवास.....अपनी सोच से बहुत विशाल......
तब क्या होता है......!!!
कैनवास बेचारा बदरंग हो जता है....... गहरे रंग जैसा भी कुछ बना था.....उसे मोटी तहों में ढांप देते हैं....रंग एक तरफ फेंक दिए जाते हैं....पैलेट टूट जाती है...
और अपनी नयी नाकामी को सेलिब्रेट करने के लिए..एक नया जाम और भर जाता है खुद ब खुद...
अब कभी कभार ही इस पर कुछ लिख पाते हैं.....इसे पोस्ट कह लीजिये..या पहले की तरह मन में उठा सिर्फ एक ख्याल....
जो शायद सिर्फ और सिर्फ हमारे लिए मायने रखता है.....अगर यह किसी और के लिए भी कोई मायने रखता तो शायद पोस्ट कहला सकता था..
हाँ,
शे'र जो है वो अलिफ़ के बजाय "ऍन",,( आपका लिखा ही कोपी पेस्ट किया है ये भी.....)
हमसे तो एन लिखा जा रहा है बस.... श'अर कहा जता हो..पर बोलने में शेर या श'अर नहीं....शे'र आयेगा हमारे ख्याल से...
अश'आर के निश्चित बंद वगैरह के बारे में हम नहीं जानते...क्यूंकि ग़ज़ल कभी ग़ज़ल की तरह नहीं जानी है हमने...
और अश'आर गाये नहीं जाते...इस बात पर हम किसी से भी सहमत नहीं हो सकते......
पुनः आइयेगा...
आपका आना बहुत बहुत अच्छा लगा...
दरअस्ल....
मुसबत तनक़ीद
राहनुमाई का ही एक पहलू है....
'बे-तख़ल्लुस' की बारगाह में
इस शाईस्ता दस्तक का इस्तिक्बाल है....
ग़ैर हो कर भी है, अपनों-सा सलीक़ा उसका
है यक़ीं, अक्लो-जुनूँ की भी गुज़र होती है
मुझे भी लिखना सिखा दो न !
ash'aar shayad ek se jyada sher ke liye istemaal hoga, uske baad kai naam diye ja skte hain, rubai jismein do ash'aar hote hain, qat'aa, gazal.. Par is baat se main ittefaq nahi rakhti ki ash'aar gaye nahi ja sakte, dekha jaye to agar aap ek sher bhi kahenge to usmein bhi behrbandi honi chahiye, warna jo dil chahe karein, koi kisi ko rokne thode aata hai.
शुक्रिया दीप ...!
तुम क्यूंकि खुद छंद से वास्ता रखती हो...
सो तुम बखूबी समझ सकती हो,
आशीर्वाद...
Post a Comment