बे-तख़ल्लुस

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'बेतख़ल्लुस' हूं मुझे कोई भी अपना लेगा

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Thursday, November 1, 2012

अनन्या ... अंतिम भाग




उस मनुष्य ने स्वप्न में भी ऐसे मंच की कल्पना नही के थी जिस पर वह इस समय था !

सबसे ऊपर तो राजसिंहासन ही था, उस से ठीक नीचे वाला आसन  इस अभागे मनुष्य का था ! उससे नीचे वाले स्थान पर सदा की भांति राज पार्षद विराजमान थे ! और भी नीचे राज्य के विशिष्ट धनवान नागरिक एवं सबसे नीचे केवल नागरिक ! सबसे ऊँचे से ले कर सबसे नीचे वालों की उंगलियाँ नए नए आरोपों से सुसज्जित उस पर उठी हुई थी ! दूरदर्शी समझे जाने वाले राजा को समझ ही नही आ रहा था की उससे ऐसे भूल कैसे हो गयी ! यदि उसके कुछ अनुभवी सभासद न होते तो इस अधर्मी मूर्तिकार ने तो इस देवी के अनिष्टकारी  रूप के साथ ही इस भरे पूरे राज्य को स्वाहा कर देने मै कुछ कसर नहीं रख छोड़ी थी !पांच भुजाओं वाली देवी भला किस प्रकार देवी स्वीकारी जा सकती थी ? चतुर्भुजी देवी के आठ, दस एवं सोलह भुजाओं वाले रूप कम से कम सुने हुए तो थे ! किन्तु अपनी देवी पांच भुजाओं वाली भी हो सकती है ऐसा अनुमान लगाना भी कठिन था !
सबसे अधिक अनुभवी एवं वृद्ध मंत्री ने भी आकाश की और दोनों हाथ उठाकर कहा था की धन्य् हैं इस राज्य के देवता, जिनकी कृपा से इस पापी ने तीन भुजाओं वाली प्रतिमा नही बनायीं ! यदि ऐसा हुआ होता तो एस स्वर्ग तुल्य राज्य को इसी समय सर्वनाश को प्राप्त हो जाना था !
कुछ और भी कलापारखी , सौंदर्य-परखी थे जिनके  अध्ययन कक्षों की पिछले भीतों का सूखा गोबर अब उखाड  दिया गया था ! अतः मनुष्य की ओर उठी हुई उँगलियाँ की संख्या में जहाँ वृद्धि  हुई थी वहां कुछ विनम्र सुझाव भी राजा को प्राप्त हुए थे जिनके फलस्वरूप राजा ने मनुष्य को म्रत्यु दंड देने का अपना प्रथम निर्णय त्याग  दिया था !

                                         उखड़े सूखे गोबर पर उकेरे खट्टे हरेपन की चर्चा अब दबी छिपी सावधानी से ही की जाती थी ! इसी प्रकार की छिपी सावधानी से लगभग हर नागरिक व् पार्षद देवी को धन्यवाद भी देता था कि  अभागे मूर्तिकार को प्राण गंवाने के बदले केवल राज्य से निष्काषित होने का दंड ही मिला ! और इस प्रकार देवी को धन्यवाद् देते समय किसी के भी विचारों में देवी की कोई भी भुजा न आती थी । इन दिनों राज्य का प्रत्येक प्राणी दया, ग्लानी एवं भय से उपजे भावों से त्रस्त लगता था , जबकि इन सब का कारण , वह अभागा मूर्तिकार अब तक इन सब से बहुत दूर किसी दिशा में निकल चुका था 

                                                                      भुजबंद पर लटकता नन्हा पुष्प अब भी उसे देख रहा था                                                               

                                                         


                       ठीक इस समय जब उसके तन को इस श्वेत कमल ने स्पर्श किया ...उसके विचारों में अनन्या की वह तर्जिनी ऊँगली कहीं से आ गई..जिसने उसे अब तक स्पर्श नहीं किया था, बल्कि अपने श्रृंगार को और अधिक बढाने की लालसा में केवल उसे इस पुष्प को तोड़ लाने का आदेश ही दिया था | अवश्य महा यक्षिणी का स्पर्श भी ऐसा ही होगा ... पता नहीं क्यूँ उसे ऐसा आभास हुआ | इस मोहक कमल जैसी ही शांत,सौम्य,श्वेत, कोमल, अटल श्वेत हिम-मूर्ति सी महा यक्षिणी अनन्या..यद्यपि इस पुष्प से ठीक विपरीत रूप-गर्विता एवं निर्मम भी ... इस सरोवर से निकले जाने के पश्चात अधिक से अधिक तीन या चार प्रहर तक ही यह पुष्प महा सुन्दरी के मादक कटि-क्षेत्र को कुछ और सुशोभित कर सकेगा...तत्पश्चात इस पुष्प का यह जीवन-रस समाप्त हो जाएगा | अभी शाश्वत सी जान पड़ रहीं इन पंखुड़ियों का यह जीवित स्पर्श...किसी मृत देह के समान हो जाएगा | ऐसे मृत स्पर्श के पश्चात स्नानादि के अतिरिक्त और भी कई उपाय उसे कंठस्थ कराये गए थे गुरुकुल में ... कुछ प्रार्थनाएं भी तब उसे याद आयीं ..
                        हंह..गुरुकुल....!!
                         लटकती पंखुडियां जहां समाप्त हो रहीं थीं .. ठीक वहीँ से कमल पुष्प के तने का भाग उसने मरोड़ी देकर तोड़ने के लिए पकड तो लिया परन्तु इस समय इस अलौकिक कमल का वह शीतल स्पर्श उसे ऐसा प्रतीत हुआ था मानो उसका हाथ तपते अलाव पर रखा गया हो | बिना उसके आदेश के उसका हाथ वह तना छोडकर उसके माथे पर आ लगा | तने को पकड़ने और इस प्रकार झटके से छोड़ने के कारण ही शायद पुष्प की सबसे निचली सतह में वास करने वाले वे हरे पीले जल-जंतु , जो आकार में उसके गुरुकुल के खट्टे इमली वाले पौधे के इर्द-गिर्द बड़ी ही मौज से टहलने वाले बड़े बड़े लाल मकोडों से कुछ ही छोटे लग रहे थे एक सीधी रेखा में बड़ी हडबडाहट के साथ प्राण-रक्षा हेतु तट की और भाग लिए | मनुष्य जान गया कि यह सब उसके पुष्प को उखाड़ने के प्रयास के कारण हो रहा है..तभी उसकी दृष्टि उस हरे वर्ण के..शायद धानी हरे वर्ण के एकमात्र जीव पर पड़ी ..जो तट की ओर भागते हरे पीले जीवों से एकदम विपरीत दिशा में भाग रहा था | अपने साथियों से टकराता हुआ .वह उस पूरी पंक्ति में पुष्प की ओर भागता जीव उस समय सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण लगा था ..पहले उसे लगा कि संभवतः इस प्राणी के अपने परिवार का कोई सदस्य ही विवश मूर्तिकार द्वारा नव-निर्मित विपदा में घिरा हुआ है.. . किन्तु ध्यान से देखने पर ज्ञात हुआ कि विपरीत दिशा में भागने वाले इस धानी हरे जीव ने एक बार भी अपने बराबर में तट की ओर भागते हरे पीले जीवों को देखने का प्रयत्न नहीं किया था...उसकी दृष्टि में कोई खोज नहीं थी ..किन्तु उसके भागने में एक विचित्रता थी | तट की ओर प्राण बचा कर भागते हरे पीले प्राणियों को तो तट दिख रहा था ..किन्तु इस अलौकिक पुष्प की सबसे निचली सतह की ओर भागते इस धानी आभा लिए जीव को ऐसी आपदा के समय क्या दिख रहा था..???

                          इस समय तक मनुष्य की दोनों आँखों की पुतलियाँ बहुत ऊपर उठ चुकीं थीं ..इतना ऊपर कि  कुछ रहा ही नहीं था कि उसकी दृष्टि किसी वस्तु तक जाती एवं किसी वस्तु पर वापस लौटती | सदा ही अपने सृजन-काल में वह इस प्रकार की अनुभूतियों के संपर्क में आकर ..उन्हें अपने ही द्वारा निर्धारित की गयी सीमाओं की सीमा में से ही छूकर लौट आता था ..किन्तु  आज एक पुष्प का विनाश करते समय न जाने किस अज्ञात के वशीभूत हो इस पूर्ण-अनुभूति तक पहुँचने के लिए उत्सुक हो गया था .. इस अंतिम समय उसके भीतर एक कामना अवश्य उपजी थी कि वह अनन्या से अपना सारा जीवन, अपनी सारी मनोस्थिति कह पाता ..... किन्तु ......
                        जल पूर्णतयः प्राकृतिक ही होता है..चाहे वह यक्ष-प्रदेश महा यक्षिणी अनन्या हेतु बने सरोवर का हो.या .मोक्ष दायिनी गंगा का अथवा गुरुकुल के पिछवाड़े में बहते नाले का ... जल अपना एक कार्य तो वह पूर्णतः प्राकृतिक रूप से ही करता है. .मूर्तिकार का मृत शरीर इस समय महा सुन्दरी अनन्या की मृतप्राय निश्चल दृष्टि एवं कमल पुष्प के जीवंत निश्छल स्पर्श के मध्य सरोवर की सतह  पर  बिना किसी प्रयास के पड़ा था ..किन्तु उसकी मोक्ष को प्राप्त होती आत्मा के शांत होते ह्रदय में जाने  कैसे वह एक अंतिम धडकन ठीक वैसा ही वातावरण बना रही थी जैसा उसके हाथों ने इस अलौकिक पुष्प को तोड़ते समय बना दिया था 


             पुष्प की ओर भागता गुरुकुल में पाए जाने वाले लाल मकोडों जैसा वह धानी हरा जीव भी अब पुष्प की निचली साथ की ओर भागता-भागता एकाएक ठहर गया था एवं अपनी कोमल पीठ पर रखा शीश..जो उसके कुल शरीर से बहुत अधिक था...ऊपर उठाये हुए मनुष्य को कृतज्ञता भरी दृष्टि से देख रहा था    


समाप्त  
    


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Monday, August 20, 2012

अनन्या भाग दो


                            अब से १३-१४  वर्ष पूर्व वह १३-१४ वर्ष का ही था ! तब खट्टी इमली का एक पौधा गुरुकुल के सामने फैली व्यर्थ सी भूमि पर उसे उगता हुआ मिला था ! उस भूमि के विषय में उसके पिता ने उसे बताया था कि वह किसी काम की नहीं है, लगभग शापित है... और उस पर कभी कुछ नहीं उग सकता ..सिवाय कंटीले झाड़ों के! किन्तु जब से गुरुकुल में उसके एक घनिष्ठ मित्र ने अपनी किसी बड़ी शंका के समाधान के समय इस स्थान की पुनः खोज की थी तब ही से प्रत्येक दिक्षार्थी की लघुशंका हेतु यह स्थान प्रचलित हो गया था ...बिना गुरुकुल के प्रधानाचार्य की स्वीकृति के ! एक दिन भादों की विचित्र दोपहर में उसकी दृष्टि इस बंजर भूमि पर फेंके गए कूड़े-करकट में से झांकते इस नन्हे इमली के पौधे पर पड़ी थी जिसकी अधिकतर जडें उस व्यर्थ सी भूमि के ऊपर ही थीं ! यहाँ तक कि जिस गहरे चमकीले कत्थई बीज से वह संभवतः उगा था, उसी को और अधिक सुन्दर, नए से हरे रूप में अपने साथ ही लिए उगे जा रहा था ! उसे ध्यान आया कि अभी कुछ समय पूर्व जेठ मास की कठोर धूप में उसने गोबर से लिपे प्राचार्य के कक्ष की पिछली भीत पर अपने नाखूनों से खोदकर ऐसा ही एक खट्टी इमली वाला पौधा उकेरा था ! तब उसकी उँगलियों पर से कुछ नाखून छूट गए थे, सूखे-लिपे गोबर पर उसके रक्त से जो चिन्ह बने थे वे सब भयावह थे.....उनमें केवल कोई पौधा था ...खट्टी इमली का कोमल हरापन कहीं नहीं था..!
                                   केवल पौधा ही सही, परन्तु मनुष्य को अपनी उँगलियों से कुरेदे इस पौधे से प्रेम था ! इमली के तने पर नवजात से हरे बीज की कमी अब भी गोबर से लिपी भीत वाले पौधे पर उसे खल रही थी ! हरे बीज का वैसा रंग उसने बस एकाध बार, एक-दो अलग तरह के वस्त्र धारण करने वाली, बहुधा अपने से बड़ी लगने वाली युवतियों की चुनरी पर देखा था ! पूर्णतः व्यर्थ भूमि पर बिखरी अद्वितीय हरीतिमा का इन अत्यावश्यक युवतियों के परिधान से क्या संबंध था, उसे कभी न पता चल सका
                                 बीतते समय के प्रत्येक तात्पर्य का भान सब को यदि न भी हो सके तो क्या समय का बीतना रुक सकता है..? हरे परिधानों वाली युवतियों से वह छोटा क्यूँ दिखता है, यह बात शायद कभी उसकी समझ में आती भी तो समय को उससे आगे निकलने का कोई न कोई और अवसर मिल जाता ! गुरुकुल के उस घनिष्ठ मित्र ने समय समय पर अपने अनुभव उस के साथ बांटे तो थे, परन्तु उसे सदैव यही लगा था कि यह सारी वार्ताएं उससे केवल इस कारण से होती हैं क्यूंकि वह अपने मित्र एवं उन युवतियों की अपेक्षा सदा अल्प वय का दिखता है ! यदि उसका जन्म कुछ और पहले हुआ होता तो शायद वह स्वयं मित्र के कंधे पर घनिष्ठता से कुहनी टिकाये हरे परिधानों की कथाएँ कह रहा होता !
                                अस्तु...! यह खट्टी इमली का पौधा उकेरने के पश्चात् उसे भीतरी सतह पर कुछ बड़ा समझा जाने लगा था ! यह भी उस समय की कुछ कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी ! लगता था कि बड़ी युवतियों की दृष्टि अब उस पर पड़ती थी तो आँखों के नीचे फैले धानी काजल से होकर पड़ती थी ! उसे तो इतना तक लगने लगा था कि उसकी काल्पनिक कुहनियों के तले घनिष्ठ मित्र का कंधा ही नहीं, प्राचार्य का शीश तक है ! परन्तु हुआ यह था कि कुछ सहपाठियों के उलाहनों के कारण उसकी वह उपलब्धि प्राचार्य को खटक गयी थी ! गुरुकुल से निष्काषित किये जाने के पश्चात् फिर उसने न तो घर का मुंह देखा, न पिता का !

                                दाहिनी ओर की दोनों भुजाओं के साथ तीसरी भुजा उसने इन्हीं विचारों के साथ पूरी तन्मयता से उकेर डाली थी ! अब प्रतिमा पर कुल जमा पांच भुजाएं थीं ! चार तो कई शताब्दियों से चलीं आ रहीं एवं पांचवीं एकदम आज ही उकेरी हुई ! एकदम अभी ही उकेरी हुई...!! एकदम उसी के द्वारा...!!! जब राजसभा में उसे इस विलक्षण कार्य हेतु विशेष सम्मान ग्रहण करने के लिए मंच पर बुलाया जाएगा तो वह सरलता से मंचासीन राज-पार्षदों पर अपनी क्षमादायक दृष्टि डालते हुए स्वीकार करेगा कि यह चमत्कार उसके कला-कौशल से नहीं हुआ, अपितु दैवयोग से उसकी दृष्टि के समक्ष पाषाण पर प्रकट हुई प्रकृति की कृपा से हुआ है !यही तो होती है विनम्रता ..जो उसके पिता में भी थी ! जैसा भी कुछ लगता उन्हें, ठीक वैसा ही कह देते थे...हर किसी को...!

                               प्रतिमा के दाहिनी ओर बनी यह विशेष भुजा स्वयं तो पूर्णतः दोष-रहित थी परन्तु इस विलक्षण सृजन से पूरी प्रतिमा उसे कुछ असंतुलित दिखने लगी थी ! दाहिना भाग कुछ अधिक भार लिए एवं बाँयां भाग कुछ हल्का..! चारों भुजाओं पर जो भुजबंद अंकित थे वे सभी कांस्य या अधिक से अधिक स्वर्ण के हो सकते थे ! पांचवीं भुजा पर भी वह ऐसा ही भुजबंद उकेरना चाहता था ! बांह पर लिपटी पाषाण की  डोर को वह किसी मूल्यवान धातु के रूप में ढालना ही चाह रहा था कि डोरी के अनगढ़े लटकाव पर उसे कुछ नयी रेखाएं दिखीं! ध्यान से देखने पर पता चला कि इस लटकाव पर बाकी चारों भुजाओं सा मूल्यवान धातुओं से बना हुआ भुजबंद नहीं है, बल्कि चार-पांच नन्हीं रेखाएं नीचे पृथ्वी की ओर गिरती हुईं एक बहुत छोटे से कमल-पुष्प की आकृति सा कुछ बना रहीं हैं ! सभी से छोटी बसौली ही जैसे तैसे इस नन्हें फूल को कच्चा पक्का उकेर पायी थी ! बाकी इसे कोमलता से तराशने का कार्य मनुष्य की उँगलियों ने ही किया था ! सब कुछ पूर्णतः स्पष्ट था अब ! अब मंच पर प्रदर्शित की जाने वाली विनम्रता की कुछ अधिक आवश्यकता उसे लग रही थी !    ...

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Monday, July 9, 2012

अनन्या भाग एक


                                           महा यक्षिणी अनन्या ने गर्व से भरे हुए अपने मुख को तनिक और तानते हुए उस मनुष्य की ओर प्रेम भरी दृष्टि डाली और अपनी बायीं भुजा उठाते हुए एक दिशा में संकेत किया ! उसकी कोमल भुजा के नीचे से जाती हिम से ढके भूभाग पर फिसलती हुई मनुष्य की दृष्टि अनन्या के अंगूठे के साथ जुडी सामंती तर्जनी द्वारा दिखाए जा रहे लक्ष्य तक जा पहुंची ! दोनों नयन क्षण भर के लिए सूर्य के तीव्र प्रकाश से टिमककर, तनिक सहमकर, स्वयं को प्रत्येक परिस्थिति के लिए दृढ करते हुए, अनन्या की तर्जनी की एकदम सीध में लक्षित श्वेत कमल पर जा रुके ! अनन्या का अंगूठा उस समय विचित्र स्थिति में था, परन्तु यह उस समय कोई ध्यान देने का विषय नहीं था ! अभी तो मनुष्य के सौन्दर्य-प्रिय नेत्र केवल उस श्वेत पुष्प की अद्वितीय छटा के दर्शन कर रहे थे ! यह औसत से कुछ बड़ा एक श्वेत कमल पुष्प था, जो इतना अधिक अलौकिक एवं प्राकृतिक था मानो स्वयं महा यक्षिणी अनन्या..!! कदाचित इस अनूठे पुष्प की सुन्दरता पर मुग्ध हो इस महा सुंदरी अनन्या ने मनुष्य के अनकहे प्रेम निवेदन को तनिक कहकर स्वीकारते हुए केवल इस पुष्प को अपने लिए तोड़ लाने का निवेदन किया था ! इस निवेदन में यद्पि कोई आदेश नहीं था, प्रेम के बदले पुष्प जैसा कोई आदान प्रदान भी नहीं था! केवल एक सुन्दर फूल पर रीझ उठी उस सहज सुंदरी की सहज प्रवृत्ति मात्र थी, जो निसंदेह ही महा यक्षिणी अनन्या के अद्वितीय रूप पर शोभा भी देती थी ! कुछ देर और फूल का सौन्दर्य पान करने के पश्चात् मनुष्य की शांत दृष्टि हिम से ढके भूभाग पर उसी मार्ग से अनन्या की तर्जनी के अग्रभाग तक वापस लौटी थी ! किसी भी वस्तु को ऐसे ही देखना उसका स्वभाव था, मानो वह अपने विचार और बाह्य सौन्दर्य को एक सीध में देखना चाह रहा हो ! अनन्या का अंगूठा अब भी उसी विचित्र स्थिति में था और मनुष्य ने अब भी उस पर कोई ध्यान नहीं दिया था ! उसकी शांत दृष्टि तो और भी अधिक स्निग्धता लिए अनन्या की कोमल सामंती तर्जनी के अग्रभाग पर क्षण भर विश्राम सा करने के पश्चात् पुष्प से भी कोमल हथेली से चिपकी बाकी तीनों उँगलियों को स्पर्श करते हुए ..ऐसा स्पर्श जिसका प्रभाव विचित्र स्थिति में तर्जनी से चिपके अंगूठे पर भी एक बार हुआ था ! सफ़ेद कलाई के उठान से चुंधिया कर , अंगूठे की जड़ में संजोये हलके अन्धकार का उपकार लिए, अनन्या की उठी दिव्य भुजा पर, बल्कि कहें तो भुजा के दिव्यरूप की एकरसता को तोड़ते हुए भुजबंद पर रुक गयी ! विधाता द्वारा रची गयी महा सुंदरी अनन्या की दिव्य भुजा पर पृथ्वी के किसी प्राणी द्वारा बनाया हुआ भुजबंद...!!!
                भुजबंद..!! जिसके निचले लटकाव पर सूर्य के तेज से बचता हुआ एक छोटा...औसत से तो बहुत ही छोटा श्वेत पुष्प अनन्या की सुन्दर सामंती बांह के नीचे भी निडरता से बह रही पवन में कितनों की ही इच्छाओं का पालन करते हुए झूल रहा था...शायद स्वयं की इच्छा से ही...और आश्चर्य ....कि अनुभवी मनुष्य की दृष्टि जान ही नहीं पा रही थी कि वह श्वेत पुष्प उसकी इच्छा से पवन में हिचकोले ले रहा है  अथवा स्वयं उसकी दृष्टि उस पुष्प की किसी इच्छा से उसकी ही गति अनुसार दायें-बायें हो रही है...कभी कभार तनिक आगे और बहुत ही कभी मामूली पीछे भी ! विचार अनंत थे उस समय ..और उन सब की परिभाषाएं भी अनंत थीं ! अभिलाषाएं उस समय स्तब्ध थीं....और प्रेम......!!!
                                          वह जान ही न सका कि प्रेम स्तब्ध हो चुका है अथवा समस्त अनंतों में अनंत हुए जा रहा है .................
               अब मनुष्य की दृष्टि औसत से कुछ बड़े श्वेत कमल को तो देख रही थी..और स्वभावतः जो मार्ग महा यक्षिणी की सामंती उंगली ने उसे दिखाया था..उसी मार्ग से लौटते हुए अब उसकी दृष्टि इस तर्जनी ऊँगली पर ही नहीं आकर नहीं रुक  रही थी ! लक्ष्य पर जाकर एकदम उसी मार्ग से वापस लौटना उस मनुष्य दृष्टि का स्वभाव था किन्तु प्रथम बिंदु .जहां से वह लक्ष्य तक पहुंची थी..लौटते समय जाने क्यूं वह इस प्रथम बिंदु से भी कुछ इधर ही आ भटकी थी ! अब विचार भी स्तब्ध थे..और उनकी परिभाषाएं....!......और फिर अभिलाष.........!!!!!
                 छोटे से वायु मंडल में जानी अजानी इच्छाओं के साथ हिचकोले खाता वह औसत से तो बहुत ही छोटा पुष्प प्रत्येक विचार, और विचारों की विविध परिभाषाओं के प्रमाणों से मुक्त मनुष्य की ओर देखकर मानो उसे कुछ स्मरण करा रहा था ! मनुष्य उस समय विवश हो गया था उस शुभ्र पाषाण को सोचने के लिए, जिसकी प्राकृतिक संरचना में उभरी रेखाओं में उसे ऎसी ही दिव्य बांह दिखाई दी थी ..
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                                        पृथ्वी .....!!! मानो अनेक आत्माओं के अनगिनत रंगों से मिलाकर विधाता ने सुन्दर चित्र बनाया हो और बना चुकने के पश्चात् किसी अनिच्छा  अथवा किसी इच्छा से उसके अरबों खरबों टुकड़े कर दिए हों ! उसके पश्चात् वे सब टुकड़े शायद अनिच्छा से ही इधर उधर उलटे सीधे जोड़कर वह चित्र दोबारा बनाया हो और पृथ्वी पर चिपका दिया हो ! इच्छा एवं अनिच्छा से बने उस चित्र के अलग अलग कटे-बंटे हुए अंश मानो इस अज्ञात अनिच्छा को न समझते हुए अपने पुराने रूप में वापस लौट आने को लालायित हो उठे हों ! शायद इच्छा एवं अनिच्छा के इस विचित्र संयोग से बना हो यह पृथ्वी का जीवन चित्र..!! और जैसे प्रत्येक अंश अपने इर्द गिर्द कुछ अनचाहे चित्र-अंश पाकर असहज हो उठा हो  ! अपने पास के जो थोड़े बहुत हिस्से संयोग वश उसके आकार और प्रकृति से मेल खा रहे हैं..वे सब उसके लिए सुन्दरता हों  और जो अंश उसके अनुरूप नहीं हैं वे.....!! वे सभी अंश जाने क्यूँ उसे कुरूप, पृथ्वी पर व्यर्थ बोझ, उसे तिलमिला देने की सीमा तक कष्ट देने वाले लगते ! यहाँ तक कि उसकी बुद्धि कभी भी उन्हें मात्र संयोग तक मानने को तैयार तक न हो पाती ..यद्पि अब उन सब बेमेल अंशों को जड़मूल सहित नष्ट किये जाने की उसकी चाह काफी हद तक कम हो गयी थी , फिर भी  स्वयं को अपनी तरह से पूर्ण करने की चाह में अपने अतीत के अंशों की खोज में किसी अनजान स्थान पर,अनजान दिशाओं में चल देना चाहता था !
                        उसे राजा से आदेश मिला था कि वह राज्य के विशिष्ट  मंदिर में स्थापित राज्य की प्रमुख देवी की शुभ्र प्रतिमा को पुनः छील-तराश कर उसका शताब्दियों के बोझ के नीचे दब चुका सौन्दर्य नए रूप में प्रस्तुत करे...और ऐसे प्रस्तुत करे कि आने वाले समय की पीढियां इस राजा को भी उस देवी जैसी ही श्रद्धा के साथ याद करे ...यह राजाज्ञा सुनकर छिन्न-भिन्न एवं मलिन देवी प्रतिमा पर से उसकी दृष्टि राजसिंहासन तक गयी थी..और प्रत्येक पार्षद के नकली मुस्कान धारण किये मुख से होती हुई वापस देवी तक आई थी ..जैसा कि उस की दृष्टि का स्वभाव था ! अब तक मलिन हो चुके किसी समय  बहुत ही अधिक श्वेत रहे पाषाण से आगे जाने का सामर्थ्य मनुष्य की आँखों में नहीं था..फिर भी एक संतोष था कि सदा चाटुकार पार्षदों से घिरे रहने वाले दूरदर्शी राजा की दृष्टि उस की कला पर पड़ ही गयी थी ..विचित्र सा यह संतोष राजा की 'दूर' वाली दूरदृष्टि तथा निकट वाले चाटुकारिता भरे मुख-मंडलों पर भारी था ! अब वह कतई नहीं सोच रहा था कि यदि राजा वास्तव में दूरदर्शी है तो उसे उसके समीप रहने वाले राज-पार्षदों के हाव-भाव से वह सब क्यूँ नहीं दिखता जो उसे दिखता है.
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---                        देवी की प्रतिमा पर समय के कारण चढ़ी असुन्दरता को जल्द ही उसने निरंतर श्रम एवं अपने बड़े से बसौले की सहायता से छील कर पुनः लगभग समतल पाषाण में बदल दिया था ! कतई समतल तो नहीं कहा जा सकता ..तथापि  एक ऐसा ढांचा अवश्य ही बन गया था जिसे चाहे तो वैसे ही प्राचीन आकार में नए सिरे से ढाला जा सकता था अथवा चाहे तो किसी भी अनूठे ढंग से उसका काफी सीमा तक रूप बदला जा सकता था ! यह बात अलग थी कि राजाज्ञा में उससे यह आवश्यक अपेक्षा की गयी थी कि आने वाली संतानें उस प्रतिमा की भाँति ही इस राजा का भी श्रद्धा से स्मरण करें !
                       उस दिन तडके भोर के समय तक भी वह उस ढाँचे को नए सिरे से प्रतिमा में ढालने की तैयारी कर रहा था ! सूर्य अभी उदय नहीं हुआ था ! हलके अन्धकार एवं हलके प्रकाश में उसने देवी-प्रतिमा की चारों भुजाओं को एक खुरदरा आधार देने का कार्य संपन्न किया था ! पूर्णिमा से पहले वाली रात्रि उसने अनवरत एक छोटी बसौली पर छोटे हथौड़े से प्रहार पर प्रहार करते व्यतीत की थी ! प्रतिमा के कटि-प्रदेश का ऊपरी भाग अनगढ़ ही सही परन्तु एक सुन्दर आकार ले चुका था ! उसने विश्राम करने हेतु अभी हथौड़ा रखा ही था कि प्रतिमा की दाहिनी ओर की भुजाओं के साथ उसे एक तीसरी भुजा दिखी ! क्षण भर को वह चकित रह गया ! उसने अपने मस्तिष्क  पर हाथ रख कर अनुभव करना चाहा कि कहीं अत्यधिक श्रम से उसका शरीर इतना तो नहीं थक गया कि उसे अपने अभी चल ही रहे कार्य के प्रति भी संदेह होने लगे...! जब वह कुछ न समझ सका तो स्वयं यंत्रवत चलता हुआ देवी-प्रतिमा के समीप जा पहुंचा , जैसे कोई विचार ही शेष न रह गया हो जिस पर उसकी स्वाभाविक दृष्टि उसके हाथ के नीचे स्थित मस्तिष्क तक लौट सके !               
                  हाँ.....! यह देवी की पांचवीं भुजा ही थी जो दाहिनी ओर की दोनों भुजाओं के साथ ही दृष्टिगोचर हो रही थी ! और अधिक निकट पहुंचने पर उसने देखा कि यह भुजा उसकी छोटी बसौली-हथौड़े के प्रहारों से नहीं बनी है बल्कि इस श्वेत पाषाण पर प्राकृतिक रूप से बनी है ! प्रतिमा के बाहरी सपाट भाग पर कुछ गहरी श्याम-वर्ण प्राकृतिक रेखाएं हैं जो इस श्वेत पाषाण पर भुजा की आकृति सा कुछ बना रहीं हैं ! एक बार उसकी दृष्टि उसके द्वारा रची गयी दोनों दाहिनी भुजाओं पर, तत्पश्चात दोनों बायीं ओर की भुजाओं पर गयी ! फिर कुछ पग पीछे की ओर वहाँ जाकर, जहां उसे विश्राम करना था, उसने समूची प्रतिमा पर मानो एक निर्णायक सी दृष्टि डाली ! उसके अथक परिश्रम से बनी देवी की चारों भुजाएं..बल्कि कहें तो समूची प्रतिमा ही उस अनूठी,अनचाही प्राकृतिक भुजा के समक्ष हर प्रकार से अर्थहीन लग रहीं थीं ! उसके हाथ एक बार फिर अपने मध्यम आकार वाले बसूली-हथौड़े की ओर बढे ही थे कि वह स्वयं की निर्णायक दृष्टि पर संदेह कर बैठा ! 
                     नहीं.....!!!....अभी नहीं.....!! कितना परिश्रम किया है इन चारों भुजाओं को देवी प्रतिमा में उचित ढंग से ढालने में ...!! रात-दिन न तो आहार की चिंता की है और न ही निद्रा की ! अपनी देह के प्रत्येक संतुलन को बिसरा कर ही तो देवी-प्रतिमा का अंग-प्रत्यंग कितना संतुलित बनाया है ! इतने सब पर कोई भी व्यर्थ का विचार कैसे हावी हो सकता  है ..? वह भी ऐसा विचार ..जिसका अस्तित्व संभवतः उसका ही दृष्टि-दोष हो ..!! कितना अमूल्य समय नष्ट करके बनायी प्रतिमा को इतनी शीघ्रता से लिए गए निर्णय से ध्वंस्त नहीं किया जा सकता ! कैसे हो सकता है कि चारों भुजाओं को फिर से सपाट कर देने के बाद इस पांचवीं भुजा के समान ही तीन और भुजाएं भी मिल ही जाएँ ? कौन जाने कि पूर्णिमा की रात्रि के बाद जाता हुआ चंद्रमा ऐसा अनिश्चितता से भरा वातावरण पृथ्वी पर और भी स्थानों पर काढ कर जाता हो..!!         
                     
                           कहना कठिन है कि मानव-शरीर चेतन मस्तिष्क के आदेश पर कार्य करता है अथवा अवचेतन मस्तिष्क के..? हो सकता है कभी यह शायद बिना किसी आदेश के भी कार्य करता हो..! कितनी ही बार ज्ञात नहीं हो पाता कि कहाँ से उठे, किस विचार के प्रभाव में आकर मानव प्रत्येक विचार से पूर्णतयः प्रभावहीन होकर कोई कार्य करने लगता है ! इसी प्रकार शायद  मनुष्य के हाथों ने जाने कब पाषाण की उबड़-खाबडता को छीलने वाला बड़ा बसौला भूमि पर धर दिया और कब उसके हाथों में छीले कटे समतल पाषाण को सुघड़ आकार में ढालने वाली छोटी सी बसौली आ गयी ! अभी तक किये गए पूरे कार्य में यह समय ऐसा था जब उसे बहुत बुरी तरह थका होने के पश्चात् भी सबसे अधिक स्फूर्ति का अनुभव हो रहा था ! क्षुधा ,निद्रा एवं श्रम से निढाल होते उसके शरीर में ऐसे नवीन रक्त का संचार हुआ था मानो अभी उसकी आयु १३-१४  वर्ष की ही हो !....Cont...

Friday, June 15, 2012

तुम्हें भूलने की बड़ी बीमारी है यार....जब कोई कहता है तो सोचता हूँ कि क्या भूलना भी कोई बीमारी होती है ..भूलना तो महज एक आदत होती है..वो भी बड़ी मासूम सी आदत ..किसी को कोई ज़्यादा परेशान ना करने वाली..दुःख ना देने वाली आदत...कितना ज़्यादा सुकून मिलता है इस आदत से..और लोग बाग़ हैं कि इस सुकून देने वाले इकलौते टॉनिक को ही बीमारी साबित करने पर तुले हैं ...इसके उलट kuchh याद रखना कितनी बड़ी बीमारी है..