बे-तख़ल्लुस

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'बेतख़ल्लुस' हूं मुझे कोई भी अपना लेगा

manu

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Monday, June 28, 2010

था ख्याल अपना फक़त वो , प्यार समझे हम जिसे
इक अदा-ऐ-जानां थी , इज़हार समझे हम जिसे

अपनी बीनाई अजब है, शक्ल या इस दह्र की
गुल न था, गौहर था, अब तक खार समझे हम जिसे

तू हमारी तरह मौला, बख्श उनकी भी खता
फिक्रे-दीं उनका था वो, व्यौपार समझे हम जिसे

मुश्किलें वो जीस्त की लाजिम थी सेहत के लिए
जीने का सामां वो ही था, बार समझे हम जिसे

और खुल निकले दहाने, ज़ख्मों के हैरत से, हाय..!
ठहरा वो ही चारागर, बीमार समझे हम जिसे

Wednesday, June 2, 2010

2 june

आज दो जून है...हमारी शादी की साल गिरह..सवेरे ही याद आ गया था..साथ ही याद हो आयी एक बरसों पुरानी रचना.....
एक बे-मतला गजल ...
जब एक दफा बेगम साहिबा अपने बताये गए समय से कुछ ज्यादा ही रुक गयीं थी मायके में... तब हुयी थी ये....
आज इसे ही पढें आप ....

ये अहले दिल की महफ़िल है कभी वीरान नहीं होती
के जिस दम तू नहीं होता तेरा अहसास होता है

तेरे जलवों से रौशन हो रहे शामो-सहर मेरे
तू जलवागर कहीं भी हो तू दिल के पास होता है

चटखते हैं तस्सवुर में तेरी आवाज़ के गुंचे
जुदाई में तेरी कुर्बत का यूं अहसास होता है

निगाहों से नहीं होता जुदा वो सादा पैराहन
हर इक पल हर घड़ी बलखाता दामन पास होता है

विसाले-यार हो ख़्वाबों में चाहे हो हकीकत में
तेरे दीदार का हर एक लम्हा ख़ास होता है.

नहीं इक बावफा तू ही, तेरे इस हमनवा को भी
वफ़ा की फ़िक्र होती है, वफ़ा का पास होता है