बे-तख़ल्लुस

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'बेतख़ल्लुस' हूं मुझे कोई भी अपना लेगा

manu

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Friday, November 18, 2011

हक-परस्ती ज़ीस्त का उनवां हुई किस दौर में
भाई-बंदी फितरते-इन्सां हुई किस दौर में

आसमां छूने लगीं हैं मुर्दा-तन की कीमतें
ये मेरी जिंदादिली अर्जां हुई किस दौर में

कितनी वजहें पूछती हैं मुझसे जीने की वज़ह
जिंदगी, तू भी मेरी जानां हुई किस दौर में

इक सिफ़र के ही सफ़र में गुम हुए आलम कई
दिल की हर उलझन हमारी जां हुई किस दौर में

था अभी तो वक़्त, उठने थे अभी परदे कई
अक्ल अपनी देखिये, हैरां हुई किस दौर में

सब बराबर हो चला अब तौलने को कुछ नहीं
मेरी सौदागर नज़र मीजां हुई किस दौर में

क्यूं ग़ज़ल की तंगदस्ती का ग़िला आशिक करे
गुफतगू माशूक से आसां हुई किस दौर में