बे-तख़ल्लुस

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'बेतख़ल्लुस' हूं मुझे कोई भी अपना लेगा

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Saturday, April 10, 2010

लॉन्ग-ड्राइव

हमने कहा...''आज आठ अप्रैल है....''
''तो.....??''

''तो..!!!!!!!!!!!!!
...अरे कुछ नहीं...बस बता रहे हैं...कि आज आठ..."
उसकी मुस्काती आँखों में और भी मुस्कराहट भर गयी...और पास खड़ी पारुल को आँखों में और भी सस्पेंस...नन्ही पारुल ने पहले हमें देखा ..फिर एकदम उसी नज़र से उसे....और उसने झुक कर उसके कान में, शायद हमें सुनाकर कहा...''आज के दिन तेरे मामा की सगाई हुई थी..''
''हाँ, हमारी अकेले की सगाई हुई थी आज...तुम्हारी थोड़े ही हुई थी.....!"
''हाँ जी, हमने भी तो पारुल से यही कहा है के आज तेरे मामा की सगाई हुई थी...''

राम जाने...कब सुधेरेंगे हम....या कब सुधरेगी वो...

अब पारुल कि आँखों में शरारत देखते ही हमें होश आया....और हमने कुछ और ज़्यादा जल्दी दिखाते हुए श्रीमती जी से कहा..
''थोड़ा जल्दी कर लो....हम पहले ही लेट हैं..''
हमारे इतना कहते ही उसने और जल्दी दिखाई और जाने कितना उतावलापन मुस्काती आँखों में समेटे साथ चलने के लिए बाईक के साथ में आ खड़ी हुई....

''अरे रुको...ऐसे मत बैठो...वैसे बैठो..जेंट्स कि तरह ...! दोनों पाँव एक तरफ किये तो हम से बैलेंस ठीक से नहीं बनता...खामख्वाह कहीं तुम्हें गिरा गिरू देंगे...''
उसने धीरे से कान में कहा...'' यहाँ तो हम ऐसे ही बैठेंगे...चाहे आप गिरायें चाहे जो करें...आखिर अपना मुहल्ला है , कोई क्या कहेगा...?
हाँ, बाहर निकलकर जैसे कहेंगे वैसे बैठ जायेंगे....''

''अरे, तो क्या मुहल्ला ये भी बतलाता है कि बाईक पर किसे, कैसे बैठना है...? और कहीं चोट फेट लग गयी तो क्या मुहल्ला....???? "

'' फ़ालतू कि बात मत करो...कहा ना...बाहर निकलकर वैसे बैठ जाऊंगी...!!! "

अपनी बीस साल की मैरिड लाइफ , और कुल जमा तीन महीने की ''ड्राईविंग-लाइफ'' में परसों पहला मौक़ा था इस तरह से साथ साथ जाने का..
इस में भी मुहल्ला बीच में आन टपका....

खैर ,
बाहर मेन रोड पर निकलकर श्रीमती जी हमारी मनचाही मुद्रा में बैठने को राजी हुईं... और उन्हें मनचाहे पोज में आते ही हमने बाईक के लेफ्ट वाले शीशे का डायरेक्शन ट्रैफिक की तरफ से हटाकर अपुन दोनों के मुखमंडल की तरफ घुमा दिया.....अभी नैन-मटक्का शुरू ही हुआ था कि बायें से ब्लू-लाईन बस का तेज..अंतिम वार्निंग वाला होर्न सुनाई दिया.और हमें एक आदिकालीन...रीतिकालीन कवि की ....ना जी..उस समय तो समकालीन ही था , वो मशहूर लाईने याद आ गयीं...

पानी करा बुलबुला, अस माणूस की जात..
देखत ही छिप जाएगा, ज्यूँ तारा परभात..

............................और..............

और हमने वापिस बाईक के शीशे का मुंह उसकी पुरानी पोजीशन पर कर घुमा दिया....अब शीशे में चंद्रमुखी के स्थान पर वही उबाऊ ट्रैफिक नज़र आ रहा था ....

हटाने से पहले हम उसकी तरफ देख कर बुदबुदाए थे....'' बाकी सब बाद में..सबसे पहले सेफ्टी है..."

अभी भी उस चेहरे पर दमकती खुशियाँ हमारी आँखों में बंद थीं.....एक बेहद मामूली गड्ढे को देखकर हमने जोर से ब्रेक लगाए...एक छोटी सी चीख सुनाई दी कानों में...अगर ये ब्रेक नहीं लगता तो ये चीख काफी ऊँची हो सकती थी..
ज़िन्दगी के हर ऊँचे नीचे रास्ते में उसने कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया है हमारा...हर हाल में..हर घडी में..हर भले बुरे वक़्त में सहारा दिया है...ये बात और के अब दिल्ली के उबड़ खाबड़ रास्तों पर चलते वक़्त उसकी हालत खराब हो जाती है....अपने दायें काँधे पर नर्म हाथ का हल्का सा दबाव महसूस हुआ ,
हम जानते हैं कि ये दबाव उसका शुक्रिया है.. उस छोटे से गड्ढे का ध्यान रखने के लिए...उसे जोर से लगने वाले हिचकोले से बचाने के लिए..
आज वो बहुत खुश है...उसे कोई परवाह नहीं के अस्पताल में किस टेस्ट की क्या रिपोर्ट आयेगी...कौन सी नई बीमारी की पोल खुलेगी....क्या होगा...उसे कोई मतलब नहीं....

कान में धीरे से फुसफुसाहट हुई....''आज हम पहली बार लॉन्ग-ड्राइव पर जा रहे हैं...''
''हाँ,..पर ...क्या अस्पताल जाना भी तुम्हारे लिए लॉन्ग-ड्राइव की मस्ती है..?''


काँधे पर फिर एक हल्का सा दबाव पड़ता है ..और हम फिर शीशे का डायरेक्शन ट्रैफिक से हटा कर हम दोनों के चेहरों कि तरफ कर देते हैं.....

पानी केरा बुलबुला.....!!

नहीं....!!!
पास से एक थ्री-व्हीलर गुजरा है लता की आवाज़ में डूबा...

कह दो बहारों से आयें इधर...
उन तक उठ कर हम नहीं जाने वाले....