ऑफिस की बात नहीं है जी...मोहल्ले की बात है...
ऑफिस में तो आम बात है होना...
शमशान में जो ठहरा...
ऑफिस ही जा रहे थे तब हम..जब फोन आया घर से...
हमारे मुंह से निकला....चलो ठीक हुआ....
उमा हम पे ज़रा बरस सी पड़ी....
क्या ठीक हुआ...?
ऐसे में ऐसा नहीं कहते.....
आपको एकदम समझ नहीं है...कुछ भी कहने की.....जो दिल में आया कह देते हो...
सब कुछ भूल कर उसे समझाना चाहा..के तुम से ही तो कहा है...
किसी गैर से तो नहीं कहा...और तुम्हें तो मालूम है के हम कैसे हैं....
हमने हजार दलीलें दीं..
कल तक तो हर आदमी कहता था के बुढ़िया ने पूरी तरह से जीना हराम कर रखा है....हर कोई...तुम भी.....उसके सब दूर पास के रिश्तेदार...
नाती .पोते..नवासे....ये.. वो.. हम.. तुम ...एक भी बता दो कि फलां शख्स उसके जीने से रत्ती भर भी खुश था...
''नहीं जी, आप समझो, ऐसा नहीं कहना चाहिए आपको.....अब वो नहीं रही..."
अरे यार...वो पहले ही कब थी किसी के लिए .....वो बात और के मोहल्ले का हर छोटा बड़ा उसे नानी कहता था....
अब क्यूंकि नानी का क्रिया - कर्म हो चुका था ..अब बारी थी वहाँ , उसके घर पर जाने की..
हमेशा कि तरह हमारा मन नहीं था जाने का....इसलिए नहीं के कोई खुंदक थी..
बल्कि हमारा मानना है कि अगर कोई मरता है..और हम उसी वक़्त वहाँ जा सकें ....... तो बेहतर है..
अगर नहीं जा सकते तो जिस दिन तेरहवीं जैसा कुछ होता है तब जाया जाए...
पर उसके बीच तेरह दिन में हम जाना जरूरी नहीं समझते....जब तक कि हमें ये यकीन ना हो कि हमारे जाने से , जाने वाले के घर वालों को किसी तरह कि शान्ति मिलगी..कोई सुकून हासिल होगा..कोई मदद हो सकेगी हमारे जाने से...
तब तक हम नहीं जाना चाहते....
माँ के ख्याल , माँ की बातें आज भी वैसी ही हैं..इस बाबत...और हमारी मैडम का भी यही कहना है......
''आप किसी के ऐसे वक़्त में नहीं जायेंगे तो आपके में कौन आयेगा....?''
चाहे हम जितना भी समझा लें..के किसी के यहाँ सिर्फ और सिर्फ फोरमेलिटी पूरी करने के लिए जाना..असल में उसे कष्ट देना ही होता है..जब कि हम जानते हैं कि हमारे आने से उसकी तकलीफ कम होने कि बजाय बढेंगी ही...सब ही जानते हैं...
वो जिस हाल में भी होगा..उठकर हमें पानी देगा..
फिर चाय बनाना चाहेगा...ना चाह कर भी....हम कुछ हाथ बंटाना चाहें भी तो वो हमें नहीं बंटाने देगा....
जिसे ठीक से जानते भी नहीं.....मुंह देखे कि दुआ सलाम ही बची हो ..उसका हम क्या दुःख दूर कर देंगे उसके घर जाकर....??
पहले बस माँ कहती थी..अब उमा भी कहती है..
''आप किसी के ऐसे वक़्त में नहीं जायेंगे तो आपके में कौन आयेगा....?''
सटीक जवाब पहले भी नहीं थे हमारे पास..आज भी नहीं हैं.....
आज बस यही सोच रहे हैं...
गोया मौत ना हुई...
ब्लोगिंग हो गयी.....
32 comments:
मोहल्ले भर की नानी थी ...
अलग बात
एक इंसान भी तो थी
बस
इक इंसान
अहम् बात .....
..........
मैडम का
या
माँ का नहीं
अब
अपना कहना मानिएगा
"दबा के कब्र में,सब चल दिए, दुआ न सलाम
ज़रा-सी देर में,क्या हो गया ज़माने को ..."
मुफलिस जी...
माना के संवेदनहीनता है ये...
खुद को एकदम गलत भी मानते हैं इस बारे में.....
पर नहीं समझ पाते के एक इन्सान....जो अचानक नहीं रहता...
उस के बारे में उतना ही अचानक अपनी सोच कोई कैसे बदल सकता है....??
हैरान होती हूँ..औरतें कितनी सही होतीं है..
एक वो हीं हैं जो ये सारे सामाजिक रीति रिवाज निभाती हैं...इन रिवाजों को निभाना भी एक तरह कि ब्लॉग्गिंग ही है....तुम मेरे घर आओ मेरे तुम्हारे घर आऊंगा....और इसमें कोई बुराई भी नहीं है...
उमा जी ठीक कहतीं हैं...एक दूसरे के सुख-दुःख में शामिल होने के लिए सिर्फ़ वजह ही काफी होती है....
सुख के लिए तो शायद सोच कर जाया भी जा सकता लेकिन दुःख के लिए...जब भी पहुंचें वही समय सही होता है...
और एक बात जब तक इन्सान जिंदा रहता है उसकी कद्र कम होती है ....लेकिन उसके जाने पर सबको अफ़सोस होता है दुश्मनों को भी....
आपकी एक कमी उजागार हुई है...सच बोलना अच्छी बात है लेकिन अप्रिय सच कोई नहीं पसंद करता है....किसी अंधे को 'ए अँधा' कह कर बुलाना उसे भी नहीं नहीं पसंद आएगा..जब कि आप सच ही कह रहे हैं...
सच को सच्चे तरीके से और अच्छे तरीके से कहने का भी एक हुनर होता है...सीख लीजिये...बहुत काम आएगा ...लोग नाराज़ नहीं होंगे बल्कि इज्ज़त करेंगे....जीवन बहुत छोटा है अप्रिय सच कई रिश्ते ख़तम कर देता है ...और सबसे धनी वही होता है जिसके निधन पर लोग सचमुच दुखी होते हैं...
अच्छी पोस्ट लिखी है आपने...
धन्यवाद...
बहुत अच्छी पोस्ट।
सीख लीजिये...बहुत काम आएगा ...लोग नाराज़ नहीं होंगे बल्कि इज्ज़त करेंगे..
aapne ekdam sahi kahaa....
par kyaa ekdam apne hi ghar mein..apne dhang se ek baat kahnaa gunaah hai...?
जी...
आपका कहा एकदम दुरूस्त है...
कम से कम बाहर का तो सोचना पड़ता है...!
मसलन..
उसी दिन हमारी बेटी का जन्मदिन भी था...हमने एकदम खामोशी से मनाया...
ना कोई नाच गाना...न कोई शोर-शराबा..
उसी दिन दर्पण के साथ बैडमिन्टन खेलने का मन था...
पर उसका ख़याल आते ही वो भी रहने दिया....
ये पोस्ट उस दिन डाली थी...
मगर उमा कि जिद्द पर हटानी पड़ी....
अभी भी चुपचाप डाल रखी है...पता लगते ही फिर सुननी पड़ेगीं बातें...
मगर क्या एक बात को हम घर में भी शेयर नहीं कर सकते..
बेशक कितनी ही अटपटी बात हो...?
अगर हम औरों कि तरह पल भर में अपने ख्यालों की पलटी ना मार सकें तो कहाँ जाएँ....???
मनु जी,
हास्य से शुरूआत, और ब्लॉगिंग पर ’खतरनाक’ व्यंग्य से अंत......वाह
वैसे संवेदनाओं का जीवन में अपना महत्व होता है.
"आह, मौत भी क्या गज़ब होती है
होने के बाद 'देखने' को बुलाती है...।"
मनुजी,यह मसला विचित्र है। दर्शन या ज्ञान की बातों में लम्बा चौडा व्याख्यान है, दिया जा सकता है, लौकिक नज़रिया भी बडा अज़ीब होता है। सब कुछ जो भी होता है, किया जाता है आदमी सिर्फ अपने लिये, अपना देख कर ही करता है। मैं इन औपचारिकताओं से बहुत दूर हूं। मुफलिसजी ने जो कहा "अपना कहना मानिये" से पूरी तरह सहमत हूं। जीवन को मैने औपचारिक ढंग से आज तक नहीं जिया, या कहूं मुझे आता ही नहीं ऐसा जीना। मेरी कमजोरी है यह कि न जीवन को न मौत के सन्दर्भ को लौकिक नज़रिये से देखा।
अपनी तो यही सोच है कि-
"अजी कौन आता है और कौन आयेगा
किसे खबर, जीव जब देह छोड जायेगा"
मिर्ज़ा साहिब ,
नमस्कार...
हुज़ूर...पिछली पोस्ट पर आपकी वो प्यारी सी झिडकी बताती है कि आप यदि ब्लॉग पर आये हैं तो जो सही गलत लगेगा..वो कह के ही जायेंगे...
और ये बात हमारे लिए आपको और भी विशेष बनाती है..
अमिताभ भाई...
अब औपचारिकताएं इन्सान दुनियादारी में तो कर ले....शायद जरूरी है..
मगर अपनी एक बात अपनी ही शरीके-हयात से औपचारिक रूप से कैसे करे...?
जो हमारा साया है, हम जिसकी परछाई हैं......
जिसे अर्द्धांगिनी कहा जाता है.....
यानी खुद अपने से ही फोर्मलिटी...?
मिर्ज़ा साहिब...
हमारी उस 'अ-पोस्ट' पर यदि आप हमें अपना समझ..प्यार से झिडकी लगाने के बजाय..
औपचारिक रूप से ....nice...लिख देते..
तो हमें कैसा लगता...??
और क्या आप सच में ऐसी औपचारिकता कर सकते थे...??
है बहुत बेबाक,बेशक,'बेतख्ल्लुस''पर सुनो
सब को सब कुछ कह सुनाये, ऐसा भी नादाँ नहीं..
गोया मौत ना हुई...ब्लोगिंग हो गयी.....
वाह..मनु जी वाह...एक नया नजरिया पेश किया है आपने...कमाल की बात कह गए हैं आप जो आज से पहले किसी न न कभी सोची न कभी कही...सच है आजकल मौत पर अगर आप उसी दिन नहीं पहुंचे तो फिर बीच में जाना बेकार है और तो और जिसके घर मौत हुई है वो भी नहीं चाहता की आप बेवक्त मुंह उतारे पहुँच जाएँ उसके घर...
नीरज
वो पहले ही कब थी किसी के लिए....
काश जीते जी इतनी इज्ज़त पा पाते ये बुज़ुर्ग.जैसी उपेक्षित ज़िंदगी माताजी जी रही थीं ...तो उन्हें तो मोक्ष ही प्राप्त हुआ ना?
पर मनुजी इस मामले में तो मैं भी कुछ ऐसी ही हूँ...फोर्मलिटी नही कर पाती..( ताने भी सुनती हूँ ..)किसी के काम आ पाओ तो हज़ार बार जाना चाहिए
कल हमारे वहां कौन आएगा ?ये कैसा सवाल हुआ??व्यापार जैसा ...हम किसी के यहाँ जाकर अपना इंतज़ाम करने जाते हैं क्या..की कल ये हमारे यहाँ आयेंगे....जो ना आये वो तो ??हमें तब भी ना मिले चार लोग कन्धा देने को तो?
लेकिन अदाजी और उमा जी की एक बात तो बिलकुल दुरुस्त है ....की हमेशा कटु सत्य से बचना चाहिए।
कहाँ का कहाँ लाकर मारा है आपने ......!!
एक तीर से दो शिकार ......???
हाँ वो nice की टैबलेट आप ही छोड़ आये थे हमारे घर ....पिछली पोस्ट में लौटा दी थी ......!!
हमारे इधर भी एक बुढ़िया स्वर्ग सिधार गयी है आइयेगा शोक पर ......
सहर जी,
आपके कमेंट्स से ऐसा लगता है जैसे आप समझी हों के वो महिला दुनिया से दुखी थी...
नहीं सहर जी..
सारी दुनिया उन से दुखी थी..बहुत दुखी...
वैसे..
अगर इसका ठीक उलटा होता भी तो..जैसा के आपको लगा...
तो भी हमारे मुंह से यही निकलता....''चलो ठीक हुआ.....!!"
एक इन्सान सारी दुनिया से दुखी हो..या सारी दुनिया एक इन्सान से दुखी हो....
दोनों ही हालात में.....जाने कि दुआ एक इन्सान के लिए ही की जायेगी...
सारी दुनिया के लिए तो नहीं...
है ना.....!!
टिप्पणी हटा दी गई
यह पोस्टलेखक के द्वारा निकाल दी गई है.
२६ मार्च २०१० १०:५३ PM....
aisaa kyooooooN....???
मनु जी !!! बाहर और भीतर कब एक होते हैं... हम जिनके साथ रहते हैं,,,वो भी हमें कितना समझते हैं,,,सबके नापतौल के पैमाने हैं,,,धन,पद,रुतबा को लोग सलाम करते हैं...खालिस व्यक्ति को कब समझा गया है...दो ही तरह से लोग सोचते हैं ...एक कि दूसरा व्यक्ति कहीं भी कभी भी उनके कार्य की सिद्धि हेतु सेतु बन सकता है...इसलिए सबकि इज्जत करो... दूसरे वे हैं जो यह सोच कर चुप रह जाते हैं कि मुझे क्या लेना । पहले राजनीतिज्ञ हैं तो दूसरे तटस्थ । राजनीतिज्ञ के पास उनके सही और गलत होने का तर्क हो सकता है... लेकिन तटस्थ व्यक्ति तो यही कहेगा कि इसमें मेरा कसूर क्या है ??? अस्तित्ववादी ...
ऐसे वक्त हम कुछ ले कर जाते हैं कुछ नहीं तो संवेदना ही सही---
हम हिन्दू रहे न अंग्रेज ही बन सके--ऐसे वक्त हमारे संस्कार के अनुसार मृतक के घर का पानी भी नहीं पीते--फिर चाय-पानी की बात क्या..?
हाँ इससे सहमत हैं कि मृतआत्मा के प्रति संवेदना भी न तो जाना नहीं चाहिए।
--आपकी साफ बयानी की जितनी भी तारीफ की जाय कम है।
दिनों बाद मुखातिब हो रहा हूँ। लगा जैसे एक पूरा अर्सा ही गुजर गया इस ब्लौग पर आये हुए।...और अब आया भी तो वही "मौत"...हाः
"है बहुत बेबाक,बेशक,'बेतख्ल्लुस''पर सुनो
सब को सब कुछ कह सुनाये, ऐसा भी नादाँ नहीं"
अब इसके बाद क्या कहे कोई। मौत और ब्लौगिंग- क्या साम्य निकाला है।
उधर के कुछ मिस-काल्स सुरक्षित हैं अब भी मोबाइल पे। बात करेंगे जल्द ही...
सवाल सही है
मनु जी ,
आज आपकी टिपण्णी के पीछे इक आह सी दिखाई दी ....कहीं कोई गुब्बार सा है दिल के भीतर ....आपके गज़लें न लिखने के पीछे भी ..... कोई वेदना छिपी है .....और इस दर्द से मेरी आखें भी नम हैं ......अपने आप को इस दर्द से उबारिये .....अगली बार ग़ज़ल की प्रतीक्षा रहेगी ......ग़ज़ल गुरुओं के लिए हम जैसों के लिए ही सही .....हमने कौन से पुरूस्कार लेने हैं .....!!
बेचैन जी हमारे यहाँ यो ऐसा रिवाज़ नहीं है की मृतक के यहाँ चाय पानी न पिया जाये ....यहाँ गुवाहाटी में भी चाय बिस्किट तो दे ही देते हैं .....हाँ जवान व्यक्ति की मौत हो तो जरा सोच विचार किया जाता है ....!!
पढा.
सोच में पड़ गई, जायेंगे तों कोई आएगा.
ना जाएँ तों?
बरसों से मेरे भी दिमाग में खटकता था यही सवाल.
जितना दोगे उतना मिलेगा ,क्या करू?
क्या इतनी वजह ही काफी नही मेरी मौत पर आने के लिए कि एक अच्छा इंसान बनने की कोशिश करती रही जीवन भर मैं ?
तुम जब भी दुखी थे मैंने कोशिश की तुम्हे हंसाने की
या किसी भी तरह तुम्हारे दर्द को कम करने की .
पर लगा ,नही सांसारिक नियमों का पालन तो किये ही नही .
जितना देती उतना पाती कमेंट्स की तरह.
मैंने लफडा ही मिटा दिया
अपने शरीर को मेडिकल कोलेज को दान कर दिया कुछ तों सीखेंगे बच्चे .
और शायद वो तो देख लें कि एक प्यारा सा दिल है भीतर. जिसमे समाई हुई है पूरी दुनिया.
न जलाने का झंझट ना दफनाने का .
किसी मौसम में कोई परेशान न हो इसलिए कानूनी कार्यवाही तों की ही
बच्चों से भी वचन ले लिया.
अफ़सोस नही कि कितने तब आयेंगे गाड़ी तक ले जाने के लिए? चार काँधे हैं
बस काफी हैं .
ब्लॉग के लिए?
अपने लिए लिखती हूँ और खुद पढ़ लेती हूँ
कोई आता है अच्छा लगता है न आये तों दुःख भी नही होता. इंदु अपनी शर्तों पर जी है .
कितना कुछ याद दिला दिया मनु तुम्हारी इस रचना ने.
हा हा हा
निर्लिप्त हो के जियो और लिखो.
ना आये कोई,लावारिस सा ही सही
व्यवहार करे तुम्हारी 'ये' दुनिया ?
या ब्लॉग की ?
हम क्यों सोचे ?
'चरवेती, चरवेती '.
मनु!
सबके कमेन्ट के जवाब देते हो .
मेरे कमेन्ट कमेन्ट नही 'विचार' थे इसलिए जवाब नही दिया?
सोचते होंगे बड़बोली है,है न ?
पर ............
एसीइइइच हूँ मैं.
हा हा हा
लोगों के विचार पढ़ कर अच्छा लगा ऐसे विचार हमारी सोच को धार देते हैं और हमे इम्प्रूव करने मे मदद करते हैं.
इसलिए इन विचारों का भी उसी प्रकार सम्मान करो जैसे हम सराहनाओं की करते है.ये सराहनाओं से बेहतर है.
और इस बात का तों पक्का सबूत है ही कि लोग आपको सचमुच पढ़ रहे हैं अन्यथा यहां बिना पढे तीन चार रटे रटाये जुमले चिपका देनी की आदत है लोगों की.वैसे आपके एक एक शब्द पढे.अच्छा लगा.पोजिटिव थिंकिंग रखते हो.जियो और ऐसा ही लिखते रहो.
देखो बीवी से मत डरना.हमारे 'गोस्वामीजी'भी अपनी बीवी से नही डरते.
हा हा हा
इंदु जी नमस्ते..
आपका स्वागत है इंदु जी..
फिलहाल कुछ कहने की हालत में नहीं हैं हम...
अभी ही आते ही आपकी शिकायत देखी है....
सो itnaa hi लिखा है....
sabse pehle to yeh vishay chunne ke liye aapki tareef karna chahti hu
bahut hi sahi vashay chuna hai aapne
aur us par likha bhi bahut khoob hai
-Shruti
indu ji kaa comment....
2010/4/7 मनु "बे-तख़ल्लुस"
पढा.
सोच में पड़ गई, जायेंगे तों कोई आएगा.
ना जाएँ तों?
बरसों से मेरे भी दिमाग में खटकता था यही सवाल.
जितना दोगे उतना मिलेगा ,क्या करू?
क्या इतनी वजह ही काफी नही मेरी मौत पर आने के लिए कि एक अच्छा इंसान बनने की कोशिश करती रही जीवन भर मैं ?
तुम जब भी दुखी थे मैंने कोशिश की तुम्हे हंसाने की
या किसी भी तरह तुम्हारे दर्द को कम करने की .
पर लगा ,नही सांसारिक नियमों का पालन तो किये ही नही .
जितना देती उतना पाती कमेंट्स की तरह.
मैंने लफडा ही मिटा दिया
अपने शरीर को मेडिकल कोलेज को दान कर दिया कुछ तों सीखेंगे बच्चे .
और शायद वो तो देख लें कि एक प्यारा सा दिल है भीतर. जिसमे समाई हुई है पूरी दुनिया.
न जलाने का झंझट ना दफनाने का .
किसी मौसम में कोई परेशान न हो इसलिए कानूनी कार्यवाही तों की ही
बच्चों से भी वचन ले लिया.
अफ़सोस नही कि कितने तब आयेंगे गाड़ी तक ले जाने के लिए? चार काँधे हैं
बस काफी हैं .
ब्लॉग के लिए?
अपने लिए लिखती हूँ और खुद पढ़ लेती हूँ
कोई आता है अच्छा लगता है न आये तों दुःख भी नही होता. इंदु अपनी शर्तों पर जी है .
कितना कुछ याद दिला दिया मनु तुम्हारी इस रचना ने.
हा हा हा
निर्लिप्त हो के जियो और लिखो.
ना आये कोई,लावारिस सा ही सही
व्यवहार करे तुम्हारी 'ये' दुनिया ?
या ब्लॉग की ?
हम क्यों सोचे ?
'चरवेती, चरवेती '.
indu ji ka comment...
---------- Forwarded message ----------
From: मनु "बे-तख़ल्लुस"
Date: 2010/4/6
Subject: Fwd: [manu-uvaach] New comment on मौत.....संशोधित पोस्ट....
To: indu puri goswami
मनु!
सबके कमेन्ट के जवाब देते हो .
मेरे कमेन्ट कमेन्ट नही 'विचार' थे इसलिए जवाब नही दिया?
सोचते होंगे बड़बोली है,है न ?
पर ............
एसीइइइच हूँ मैं.
हा हा हा
लोगों के विचार पढ़ कर अच्छा लगा ऐसे विचार हमारी सोच को धार देते हैं और हमे इम्प्रूव करने मे मदद करते हैं.
इसलिए इन विचारों का भी उसी प्रकार सम्मान करो जैसे हम सराहनाओं की करते है.ये सराहनाओं से बेहतर है.
और इस बात का तों पक्का सबूत है ही कि लोग आपको सचमुच पढ़ रहे हैं अन्यथा यहां बिना पढे तीन चार रटे रटाये जुमले चिपका देनी की आदत है लोगों की.वैसे आपके एक एक शब्द पढे.अच्छा लगा.पोजिटिव थिंकिंग रखते हो.जियो और ऐसा ही लिखते रहो.
देखो बीवी से मत डरना.हमारे 'गोस्वामीजी'भी अपनी बीवी से नही डरते.
हा हा हा
मनु जी कमेन्ट गायब होने की बात पे अपने हस्ताक्षर दे सही किया ....पता नहीं ये क्या माज़रा है ....!!
खैर इंदु जी के विचार पढ़े ....अच्छा लगा जानकर कि उनके शरीर पर तो उनका हक़ है ....वे स्वेच्छा से दान तो कर सकीं..... नमन है इस देवी को बहुत मुश्किल है ऐसे व्यक्तित्व का गठन या इन रास्तों पर चलना .....!!
aakhri panktiya bahut jordaar rahi ,is samaj ke saath chalne ke liye kuchh farz ada karne padte hai .
ओ बेटा....!!!!!!!!!!!!!!!
हमारे कमेंट्स तो वापिस मिल गए....वो भी जहां थे..ठीक उसी जगह....
:)
पोस्ट के साथ हम तो इस पर ही मर मिटे -
"है बहुत बेबाक,बेशक,'बेतख्ल्लुस''पर सुनो
सब को सब कुछ कह सुनाये, ऐसा भी नादाँ नहीं.."
बेहतरीन ! आभार ।
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