हक-परस्ती ज़ीस्त का उनवां हुई किस दौर में
भाई-बंदी फितरते-इन्सां हुई किस दौर में
आसमां छूने लगीं हैं मुर्दा-तन की कीमतें
ये मेरी जिंदादिली अर्जां हुई किस दौर में
कितनी वजहें पूछती हैं मुझसे जीने की वज़ह
जिंदगी, तू भी मेरी जानां हुई किस दौर में
इक सिफ़र के ही सफ़र में गुम हुए आलम कई
दिल की हर उलझन हमारी जां हुई किस दौर में
था अभी तो वक़्त, उठने थे अभी परदे कई
अक्ल अपनी देखिये, हैरां हुई किस दौर में
सब बराबर हो चला अब तौलने को कुछ नहीं
मेरी सौदागर नज़र मीजां हुई किस दौर में
क्यूं ग़ज़ल की तंगदस्ती का ग़िला आशिक करे
गुफतगू माशूक से आसां हुई किस दौर में
बे-तख़ल्लुस
manu

Friday, November 18, 2011
Thursday, August 4, 2011
बल्कि तस्वीर हव्वा की बनाने बैठा था..
दुनिया की पहली औरत हव्वा..
पहली औरत जो...
खुदा का शौक थी, शैतां का प्यादा
अजल से खेल बस, औरत की जां थी..
दुनिया..
जो मेरे लिए शायद एक बार फिर से पहली थी..सुनने में आया था कि किस्म किस्म की किताबें पढ़ कर सयाने बन चुके लोग, लोगों के ज़हन में हव्वा की एक तस्वीर बनाए हुए हैं..पढ़ी गयी किताबों के हिसाब से ...
सिर्फ लिखे हुए को ही सब कुछ समझ लेते हैं लोग बाग़ ..किस किस्म के लेखक ने लिखा है सब..किसी को भी क्या मतलब हुआ है कभी...
नाश की जड़, नरक का दरवज्जा. ऐसे ही जाने कितने नामों अब तक से नवाजी गयी हव्वा...जिसके तन पर जाने कहाँ से एक शर्ट पेंट हो गयी थी मुझसे..सोचा तो खूब ही था उस पल..कि ये तो हव्वा जैसी तो कहीं से भी नहीं लग रही उस लाल कमीज़ में...
कमीज़...
जिसे पेंट करने की वजह ..दिल और दिमाग का कैसा भी डर नहीं था ब्रश पर...हजामत किये जाने वाले बाल और उनसे सटे दांतों की हर जद्दो ज़हद तक से शायद वो लाल कमीज़ अनजान थी..या कहें तो बेपरवाह थी ...(लापरवाह नहीं...बेपरवाह..) ....बेपरवाह थी...
कमीज़...
जिसे पेंट करने की वजह कोई भी धार्मिक-अधार्मिक, शारीरिक-अ_शारीरि...ओह शिट.....
उस खाब पे लहरा के उठे जिस्म भी जां भी
जिस खाब से दोनों ही पशेमां थे अगरचे..
हाँ..
धर्म,देश,काल,समय,जात,वर्ण, मतलब-मकसद, सत्ता-कुर्सी.....
यानी किसी भी उल जुलूल फतवे का कोई डर हावी नहीं था....पास का और दूर का चश्मा बारी बारी से चढ़ा कर देखा भी था...
दोनों ही से सिर्र्फ लाल रंग ही तो झलका था...कोई भी रेखा कहाँ नजर आई थी...दोनों ही से...
Wednesday, July 27, 2011
काकटेल का कोलाज़ ..
एक वक़्त में एक ही काम किया करो...ऐसा लगता है..जैसे दिल कह रहा हो..
दिल....
जिसकी भी सीमाएं होती हैं शायद...जिस्म की तरह ही...
फिर कहीं से ये आवाज़ क्यूं आती है...अब तो माँ भी है...और रोज़ी/रोजी भी...
जैसे कोई कह रहा है निकल चलने के लिए....कुछ लेकर..
और..
सब छोड़ कर...
शेव करते वक़्त अब भी शे'र यूं ही दिमाग में कुलबुला रहे हैं...रदीफ़ और काफिये की नाकामी के अलावा कैनवस पर जाने कितनी ही दोबारा से मोल ली नयी नयी नाकामियाँ बिखरी पड़ीं मुंह टाक रहीं हैं...और ऐसे में दिल कह रहा है कहीं निकल चलने के लिए...
पहले से कुछ सिकुड़ चुके गालों पर ब्लेड चल नहीं रहा है आज ठीक से..चलेगा कहाँ से..अभी झाग ही कहाँ बने हैं ढंग से...हाथ की स्पीड और बढ़ा दी है पर बात बन नहीं रही कुछ...क्रीम थोड़ा और मांग रहा है शायद शेविंग ब्रश..........
रंगों से सने हाथों से दोबारा ट्यूब खोलता हूँ..ब्रश पर थोड़ा और ज्यादा लगाता हूँ..अब की जाने कैसे इसकी महक नथूनों में चली आती है...
oooooooooffffffffffff.................
कमबख्त पहली दफा क्यूं ना आई....कित्ती देर से क्लोज-अप टूथ पेस्ट को शेविंग क्रीम समझ कर मलते मलते गाल खुरच डाले.... याद आया...रोज़ी की बात ज़हन में आते ही पेंटिंग वाला ब्रश कलर पैलेट में अपनी दिशा बदलकर गुलाबी रंग की तरफ मुड गया था..और थोड़ी देर के लिए दिल ने इसे भी नियति मान लिया था ..तस्वीर के गाल खामख्वाह गुलाबी हो गए थे...फिर जब ख्यालों ने एक और करवट ली थी..एक और पेग के साथ..तो ध्यान आया था...कि तस्वीर दरअसल रोज़ी की नहीं बनाने बैठा था..बल्कि ...
Sunday, July 10, 2011
आज का दिन..या रात कहें तो...!
बड़ा फुर्सत का थी...या..बड़ी फुर्सत का था....
थोड़ा अब भी बचा/बची है..
आज खुद से ..एक बार फिर तसल्ली से रूबरू होने का दिन/शाम थी...और आज कई साल बाद एक कैनवास खरीदा था...खुद की मौजूदा तस्वीर उतारने के लिए...मौजूदा तस्वीर...खुद की...
.जो जाने कब से मौजूद थी...
स्टेशनरी वाले भाई ने भी पूछ ही लिया था...आज...इतने सालों बाद....!!
आप कैनवास खरीद रहे हैं..!!!!!
उसका सवाल ..बस...एक दुकानदार का सवाल लगा था उस वक़्त...सो एक ग्राहक सा ही जवाब..ह्म्म्म.,,हुंम में देकर सुलटा दिया था..कैनवास के दाम सुनते ही हम अपनी .. हम्म ..हुंम छोड़कर सीधे दुकानदार/ग्राहक वाली जबान पर उतर आये .. मगर कैनवास का दुकानदार शायद जन्मजात दुकानदार था.......
सो हम शायद कुछ न थे उसके आगे...
भले ही उसने जिंदगी भर कैनवास ना बेचे हों...पर था वो दुकानदार ही...बेशक..किसी ऐसे कैनवास का नहीं...जैसा/जैसे हम......पर वो था पक्का दुकां...( इससे ज़्यादा क्या कहें ..किसी को...? )
बहरहाल.....
ऑफिस में हमने कैनवास लाकर रख दिया ..शाम को जाते वक़्त ले जाने के लिए...और कोई बहुत ज़्यादा इंतज़ार भी नहीं किया था शाम का...जितना कि करना चाहिए था...शाम का....
हाँ,
कैनवास पर लिखा रेट जरूर दुबारा देखा था...दो सौ छतीस रुपये...और..और चवन्नी अट्ठन्नी जैसे... शायद कुछ गरीब पैसे भी..हों तो...हालांकि ये दाम ब्रेल में नहीं लिखा/खुदा हुआ था..फिर भी आँखों के साथ उँगलियों ने भी उसमें कुछ टटोला था...
वैसे ही जैसे ब्रेल को टटोला जाता है...
Friday, June 10, 2011
एक नयी ग़ज़ल...
एक नयी ग़ज़ल लेकर हाज़िर हैं...जो नेट कि मेहरबानी से किसी तरह पोस्ट हो जाए तो...
बढ़ा दी हैं मेरी गर्दिश ने जिम्मेदारियां मेरी
कहाँ हैं अब किसी के काम की नाकामियां मेरी
नज़रिया इन दिनों कैसा है उनका क्या बताऊँ, अब
खटकती ही नहीं उनकी नज़र में खूबियाँ मेरी
खुदा जाने कि मेरी मुश्किलों से वो रहा ग़मगीं
कि उसके ग़म से अफसुर्दा रहीं दुश्वारियां मेरी
किसी की चाल है या है चलन इस दौर का ऐसा
चले हैं हट के मेरे तन से अब परछाइयाँ मेरी
समझना था सभी ने अपने अपने ढंग से मुझको
समझ कर भी समझता क्यूँ कोई खामोशियां मेरी
हिसाबे-उम्र, इस दिल पर अभी बचपन बकाया था
अगर करती नहीं मुझको बड़ा मजबूरियां मेरी
करेंगे रंग वो बेबाक सा कुछ अब के चिलमन का
कि उस चिलमन पे शा'या हो चलीं बेबाकियां मेरी
बढ़ा दी हैं मेरी गर्दिश ने जिम्मेदारियां मेरी
कहाँ हैं अब किसी के काम की नाकामियां मेरी
नज़रिया इन दिनों कैसा है उनका क्या बताऊँ, अब
खटकती ही नहीं उनकी नज़र में खूबियाँ मेरी
खुदा जाने कि मेरी मुश्किलों से वो रहा ग़मगीं
कि उसके ग़म से अफसुर्दा रहीं दुश्वारियां मेरी
किसी की चाल है या है चलन इस दौर का ऐसा
चले हैं हट के मेरे तन से अब परछाइयाँ मेरी
समझना था सभी ने अपने अपने ढंग से मुझको
समझ कर भी समझता क्यूँ कोई खामोशियां मेरी
हिसाबे-उम्र, इस दिल पर अभी बचपन बकाया था
अगर करती नहीं मुझको बड़ा मजबूरियां मेरी
करेंगे रंग वो बेबाक सा कुछ अब के चिलमन का
कि उस चिलमन पे शा'या हो चलीं बेबाकियां मेरी
Wednesday, March 2, 2011
एक पुरानी ग़ज़ल... मेज़र साहब की जिद्द पर... ग़ज़ल..जो कि मुफलिस जी के साथ मोबाइल एस.एम.एस के द्वारा हुई...
जमा खोरो की नीती जेब पर भारी रही तो
जो खुद मिट जाने की हद तक खरीदारी रही तो
सवेरे शाम बस खिचड़ी ख्यालों की पकेगी
अगर फल से भी मंहगी अब के तरकारी रही तो
खुद अपनी शक्ल की पहचान मुश्किल हो रहेगी
उजालों की, अंधेरों से तरफदारी रही तो
वफ़ा की राह अगले वक़्त में वीरान होगी
वफादारी पे गर यूं ही ज़फा भारी रही तो
हलक से सच तुम्हीं बोलो, भला फूटेगा कैसे
अगर गर्दन पे ठहरी झूठ की आरी रही तो
गुजर बादाकाशों का बोल क्योंकर हो सकेगा..?
जो साक़ी की भी पीने में तलबगारी रही तो
सिनेमा में दिखेंगे भांड और सर्कस के जोकर
अदा के नाम पे ये ही अदाकारी रही तो
Monday, February 14, 2011
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