बे-तख़ल्लुस

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'बेतख़ल्लुस' हूं मुझे कोई भी अपना लेगा

manu

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Wednesday, July 27, 2011

काकटेल का कोलाज़ ..

एक वक़्त में एक ही काम किया करो...ऐसा लगता है..जैसे दिल कह रहा हो..
दिल....
जिसकी भी सीमाएं होती हैं शायद...जिस्म की तरह ही...
फिर कहीं से ये आवाज़ क्यूं आती है...अब तो माँ भी है...और रोज़ी/रोजी भी...
जैसे कोई कह रहा है निकल चलने के लिए....कुछ लेकर..
और..
सब छोड़ कर...
शेव करते वक़्त अब भी शे'र यूं ही दिमाग में कुलबुला रहे हैं...रदीफ़ और काफिये की नाकामी के अलावा कैनवस पर जाने कितनी ही दोबारा से मोल ली नयी नयी नाकामियाँ बिखरी पड़ीं मुंह टाक रहीं हैं...और ऐसे में दिल कह रहा है कहीं निकल चलने के लिए...
पहले से कुछ सिकुड़ चुके गालों पर ब्लेड चल नहीं रहा है आज ठीक से..चलेगा कहाँ से..अभी झाग ही कहाँ बने हैं ढंग से...हाथ की स्पीड और बढ़ा दी है पर बात बन नहीं रही कुछ...क्रीम थोड़ा और मांग रहा है शायद शेविंग ब्रश..........
रंगों से सने हाथों से दोबारा ट्यूब खोलता हूँ..ब्रश पर थोड़ा और ज्यादा लगाता हूँ..अब की जाने कैसे इसकी महक नथूनों में चली आती है...
oooooooooffffffffffff.................

कमबख्त पहली दफा क्यूं ना आई....कित्ती देर से क्लोज-अप टूथ पेस्ट को शेविंग क्रीम समझ कर मलते मलते गाल खुरच डाले.... याद आया...रोज़ी की बात ज़हन में आते ही पेंटिंग वाला ब्रश कलर पैलेट में अपनी दिशा बदलकर गुलाबी रंग की तरफ मुड गया था..और थोड़ी देर के लिए दिल ने इसे भी नियति मान लिया था ..तस्वीर के गाल खामख्वाह गुलाबी हो गए थे...फिर जब ख्यालों ने एक और करवट ली थी..एक और पेग के साथ..तो ध्यान आया था...कि तस्वीर दरअसल रोज़ी की नहीं बनाने बैठा था..बल्कि ...

4 comments:

daanish said...

रदीफ़ और क़ाफिये की नाकामी के अलावा
केनवास पर जाने कितनी ही दोबारा से मोल ली गयी
नयी नयी नाकामियाँ मुहँ ताक रही हैं ....

अब इश्क़ किया है, तो सब्र भी कर
इसमें तो यही कुछ होता है !!

दर्पण साह said...

अब इश्क़ किया है, तो सब्र भी कर
इसमें तो यही कुछ होता है !!

:)

Pawan Kumar said...

.......पैग के साथ ये बयानी काफी उम्दा और दिलचस्प लगी

इन्दु पुरी said...

पेंटिंग भी करते हो बाबु?शब्दों से छत्र खींचते हो,रंग भरते हो...मैंने देखा है.दायीं ओर बने पेंटिंग्स पर नाम पढा 'उमा' ...तब जाना तुम्हारे इस रूप को भी.उमा तो तुम्हारी पत्नी कानाम है.
एक और रचना पढ़ी मैं एकूल तीन पढ़ चुकी हूँ....हव्वा या..हव्वा की बेटियां तो हर कहीं है तुम्हारे पास.ये तुम हो एक बारिक लकीर सा अंतर भी नही देखते.लोगों के लिए उनकी हव्वा और सड़क पर चलती हव्वा अलग अलग है इसी लिए अलग हो जाते हैं उनके चश्मों के रंग भी.रचना जरा कठिन लगी.दिम्माग लगाना पड़ा...कुछ समझी...कुछ के गहराई में नही उतर पा.