वैसे तो मतले कहाँ बनते हैं ,,,,
पता नहीं क्या हुआ के मतला ही बन के रह गया.....
बस ....
छाप ही दिया ...
कब से कुछ नहीं लिखा था...
कुछ न ईमां पर कहें , जो साहिबे-ईमां नहीं
लफ्ज़ आसां है मगर ये इतना भी आसां नहीं
क्यूं ख़याल अपने हों, फैज़-औ-मीर-ग़ालिब से जुदा
या तो वो कुछ और थे, और या हमीं इन्सां नहीं.
22 comments:
wo mara papad wale ko sadiyo baad first aaya hoon...
kabhi high school main bhi nahi aaya.
bus isko post karne ne pehle koi aur na comment kar de.
aaj to fixing bhi nahi ki.
....baad main aata hoon comment karne ko.
abhi zaldi isko post karon.
कब से कुछ नहीं लिखा था...
pooch rahe ho ya bata rahe ho?
क्यूं ख़याल अपने हों, फैज़-औ-मीर-ग़ालिब से जुदा या तो वो कुछ और थे, और या हमीं इन्सां नहीं.
pooch rahe ho ya bata rahe ho?
maza aa gay manu ji.
ye jo ghazal ki choti si beti likhte ho na aap,,,
...hamesha hi mujhe pasand ata hai.
betiyaan pasand hai na mujhe.
हाँ ! कहीं कुछ तो अधूरा है खयालो-फिक्रो-फन
या कहीं मफहूम कम है , या कहीं उन्वां नहीं
dono badshaao ke baad 3rd bankar bhi sukun mil rahaa he/
क्यूं ख़याल अपने हों, फैज़-औ-मीर-ग़ालिब से जुदा या तो वो कुछ और थे, और या हमीं इन्सां नहीं.
"na vo juda he hamse, naa ham kabhi unse hue..
vo jo hue so hue ham bhi kyaa kam hue.."
Bahut bahut khoob ... bahar ki nazar se dekhne ka mann hi nahi hua .. Gazab ke khayalat hain Manu ji. Kripaya isey aagey badhayein aur Gazal ko poora karein.
God bless
RC
सरासर गलत बात के मतला नहीं बनते .... हुज़ूर ये क्या है ... क्यूँ जान लेने पे तुले हो मियाँ आप ... मतला और शे'र उफ्फ्फ्फ़ हदों से दूर हैं के कुछ कहूँ... मेरी गुजारिश है के इस ग़ज़ल को आप पूरा करें... इंतज़ार कर रहा हूँ मैं ...और उस्ताद जी श्रधेय मुफलिस जी ने जो शे'र कहे है उसके बारे में भी कुछ कहने लायक नहीं हूँ....
फिर से आता हूँ .....
अर्श
अर्श भाई से सहमत हूँ
बहुत खूबसूरत मतला है
वीनस केसरी
मनु जी,
पता नहीं इतने सारे धुरंधर कितनी बातें कह रहे हैं...
हम सिर्फ इतना जानते हैं की आपके दोनों शेरों ने हम पर भी कम असर नहीं किया है हुज़ूर....बस फर्क सिर्फ इतना है की हम ग़ज़ल, मतला, बहर. की techinacality से महरूम हैं.. ...
क्यूं ख़याल अपने हों, फैज़-औ-मीर-ग़ालिब से जुदा या तो वो कुछ और थे, और या हमीं इन्सां नहीं.
उम्दा शेर Manu ji
Supar hit !!
Sach main aage to zaroor likhen ...
अरे मनु मियाँ.....अमां यार ये आप किया कर रिये हो.....मैं तो इहाँ आया था आपको झाड़ लगाने कि आप हकीरत जी को भड़का रहे थे.....और यहाँ आकर देखा तो क्या देखता हूँ कि ये दो शेर नायब से.....और मेरा गुस्सा काफूर हुई गवा.....!!...अब बाद में आउंगा....आपको डांटने.....ठीक है....??तब तक के लिए.....ब्रेक......!!
पिछले कुछ दिनों से ठौर-ठिकाना नहीं था....पहाड़-जंगल-दरिया घूम कर आया हूं और एक बड़ी सफलता के साथ तो मेरे लिये "मनु-उवाच" पे इतने बेमिसाल दो शेर प्रतिक्षा कर रहे होंगे, ये पता न था।
और शेर माशाल्लाह क्या शेर हैं मनु जी...मैं चुप हूं, स्तब्ध हूँ आपकी मासूमियत पर।
मतले सचमुच नहीं बनते हैं बेतखल्लुस साब---कम से कम ऐसे नायाब मतले तो यकीनन बनने बंद हो गये हैं इस नये दौर की ग़ज़लों में।
...और ये दो मिस्रे दिल से कह रहा हूँ-
जब कहे वो शेर ऐसा अपने ही अंदाज़ में
"बेतखल्लुस" पर कहो फिर कौन हो कुर्बां नहीं
इस ग़ज़ल को आप पूरा करें..उसके बाद टिप्पणी दूंगा....
Aapki baat se puri tarah sahmat
kabhi kabhi matla nahi banta
aur kabhi sirf matla ........
aisi jaane kitni gazal dafan rah jaati haai jo ki 2 yaa 3 sher hi hoti hai aur aage kabhi badti hi nahi
bahut achha hua ki aapne inhe padhwaya
umeed hai ki jald hi ye puri gazal hogi
सुंदर ...
मनोज भारती
क्यूं ख़याल अपने हों, फैज़-औ-मीर-ग़ालिब से जुदा या तो वो कुछ और थे, और या हमीं इन्सां नहीं.
Aap koun se फैज़-औ-मीर-ग़ालिब se kam hain jnaab......!?!
Aur ye Darpan ji papad wale ko kyon maar rahe hain ...???
दर्पण भाई,
मैंने आपका फोन नम्बर गलती से कई ऊट-पटांग लोगों को दे दिया है
मेरी बेवकूफी थी,
आज के बाद मैं किसी को भी किसी का फोन नंबर नहीं दूंगा....
देना भी नहीं चाहिए...
बहुत बेकार बात होती है ये....
हमें कोई हक़ नहीं के किसी को भी किसी का भी फोन नंबर दे डालें...!!
आप इस पोस्ट पे जरूर आओगे..
इस लिए यहाँ पे लिखा है..
आय एम सॉरी अगेन....!!!
"क्यूं ख़याल अपने हों,फैज़-औ-मीर-ग़ालिब से जुदा;
या तो वो कुछ और थे, और या हमीं इन्सां नहीं|"
लाजवाब...उम्दा...
इन पंक्तियों ने सब कह दिया पर इस ग़ज़ल को आप पूरा करें....बहुत बहुत बधाई...
मनु जी आपके स्नेह और ख्याल से अभिभूत हूँ। शुक्रगुजार हूँ उस क्षण का और इस हिंदी-ब्लौग का कि आपसे रिश्ता बना। मन की हालत अभी ठीक हुई है तो बैठा हूँ आज ब्लौग पे और सबसे पहले आपसे ही मुखातिब हूँ।
ये ग़ज़ल अभी तक पूरी क्यों नहीं हुई है? मेरे दो मिस्रे किसी काबिल हैं तो कृपया उसे अपना म्क्ता मान कर शामिल करें और चंद शेर और जोड़ें।
सर्वश्क्तिमान के अस्तित्व और खुद अपनी क्षमता पर शक-सवाल इसलिये खड़े हो गये थे कि एक बड़ी विफलता को झेला है अभी कुछ दिनों पहले जिसने मेरे आत्म-विश्वास को लगभग चकनाचूर कर दिया था।
वो रोचक पोस्ट फिर कभी लगाऊँगा...!!!!
आपकी गज़ल पढ कर ही चली जाती हूँ कुछ कहने का साहस नहीं पाती क्यों कि आपकी गज़ल के स्तर के अल्फाज़ ही मेरे पास नहीं होते शुभकामनायें
मनु भाई कमाल की लाईनें लिखी आहा !
manu bhai....
main ise kaise miss kar gaya .. yahi samajh nahi aa raha hai ..
bus itna kahna chahunga ki , ye sher aapka likha hua sabse behatreen sher hai .. mera salaam kabul karo sir ji ..
क्यूं ख़याल अपने हों, फैज़-औ-मीर-ग़ालिब से जुदा या तो वो कुछ और थे, और या हमीं इन्सां नहीं.
regards,
vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com
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