बे-तख़ल्लुस

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'बेतख़ल्लुस' हूं मुझे कोई भी अपना लेगा

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Thursday, November 1, 2012

अनन्या ... अंतिम भाग




उस मनुष्य ने स्वप्न में भी ऐसे मंच की कल्पना नही के थी जिस पर वह इस समय था !

सबसे ऊपर तो राजसिंहासन ही था, उस से ठीक नीचे वाला आसन  इस अभागे मनुष्य का था ! उससे नीचे वाले स्थान पर सदा की भांति राज पार्षद विराजमान थे ! और भी नीचे राज्य के विशिष्ट धनवान नागरिक एवं सबसे नीचे केवल नागरिक ! सबसे ऊँचे से ले कर सबसे नीचे वालों की उंगलियाँ नए नए आरोपों से सुसज्जित उस पर उठी हुई थी ! दूरदर्शी समझे जाने वाले राजा को समझ ही नही आ रहा था की उससे ऐसे भूल कैसे हो गयी ! यदि उसके कुछ अनुभवी सभासद न होते तो इस अधर्मी मूर्तिकार ने तो इस देवी के अनिष्टकारी  रूप के साथ ही इस भरे पूरे राज्य को स्वाहा कर देने मै कुछ कसर नहीं रख छोड़ी थी !पांच भुजाओं वाली देवी भला किस प्रकार देवी स्वीकारी जा सकती थी ? चतुर्भुजी देवी के आठ, दस एवं सोलह भुजाओं वाले रूप कम से कम सुने हुए तो थे ! किन्तु अपनी देवी पांच भुजाओं वाली भी हो सकती है ऐसा अनुमान लगाना भी कठिन था !
सबसे अधिक अनुभवी एवं वृद्ध मंत्री ने भी आकाश की और दोनों हाथ उठाकर कहा था की धन्य् हैं इस राज्य के देवता, जिनकी कृपा से इस पापी ने तीन भुजाओं वाली प्रतिमा नही बनायीं ! यदि ऐसा हुआ होता तो एस स्वर्ग तुल्य राज्य को इसी समय सर्वनाश को प्राप्त हो जाना था !
कुछ और भी कलापारखी , सौंदर्य-परखी थे जिनके  अध्ययन कक्षों की पिछले भीतों का सूखा गोबर अब उखाड  दिया गया था ! अतः मनुष्य की ओर उठी हुई उँगलियाँ की संख्या में जहाँ वृद्धि  हुई थी वहां कुछ विनम्र सुझाव भी राजा को प्राप्त हुए थे जिनके फलस्वरूप राजा ने मनुष्य को म्रत्यु दंड देने का अपना प्रथम निर्णय त्याग  दिया था !

                                         उखड़े सूखे गोबर पर उकेरे खट्टे हरेपन की चर्चा अब दबी छिपी सावधानी से ही की जाती थी ! इसी प्रकार की छिपी सावधानी से लगभग हर नागरिक व् पार्षद देवी को धन्यवाद भी देता था कि  अभागे मूर्तिकार को प्राण गंवाने के बदले केवल राज्य से निष्काषित होने का दंड ही मिला ! और इस प्रकार देवी को धन्यवाद् देते समय किसी के भी विचारों में देवी की कोई भी भुजा न आती थी । इन दिनों राज्य का प्रत्येक प्राणी दया, ग्लानी एवं भय से उपजे भावों से त्रस्त लगता था , जबकि इन सब का कारण , वह अभागा मूर्तिकार अब तक इन सब से बहुत दूर किसी दिशा में निकल चुका था 

                                                                      भुजबंद पर लटकता नन्हा पुष्प अब भी उसे देख रहा था                                                               

                                                         


                       ठीक इस समय जब उसके तन को इस श्वेत कमल ने स्पर्श किया ...उसके विचारों में अनन्या की वह तर्जिनी ऊँगली कहीं से आ गई..जिसने उसे अब तक स्पर्श नहीं किया था, बल्कि अपने श्रृंगार को और अधिक बढाने की लालसा में केवल उसे इस पुष्प को तोड़ लाने का आदेश ही दिया था | अवश्य महा यक्षिणी का स्पर्श भी ऐसा ही होगा ... पता नहीं क्यूँ उसे ऐसा आभास हुआ | इस मोहक कमल जैसी ही शांत,सौम्य,श्वेत, कोमल, अटल श्वेत हिम-मूर्ति सी महा यक्षिणी अनन्या..यद्यपि इस पुष्प से ठीक विपरीत रूप-गर्विता एवं निर्मम भी ... इस सरोवर से निकले जाने के पश्चात अधिक से अधिक तीन या चार प्रहर तक ही यह पुष्प महा सुन्दरी के मादक कटि-क्षेत्र को कुछ और सुशोभित कर सकेगा...तत्पश्चात इस पुष्प का यह जीवन-रस समाप्त हो जाएगा | अभी शाश्वत सी जान पड़ रहीं इन पंखुड़ियों का यह जीवित स्पर्श...किसी मृत देह के समान हो जाएगा | ऐसे मृत स्पर्श के पश्चात स्नानादि के अतिरिक्त और भी कई उपाय उसे कंठस्थ कराये गए थे गुरुकुल में ... कुछ प्रार्थनाएं भी तब उसे याद आयीं ..
                        हंह..गुरुकुल....!!
                         लटकती पंखुडियां जहां समाप्त हो रहीं थीं .. ठीक वहीँ से कमल पुष्प के तने का भाग उसने मरोड़ी देकर तोड़ने के लिए पकड तो लिया परन्तु इस समय इस अलौकिक कमल का वह शीतल स्पर्श उसे ऐसा प्रतीत हुआ था मानो उसका हाथ तपते अलाव पर रखा गया हो | बिना उसके आदेश के उसका हाथ वह तना छोडकर उसके माथे पर आ लगा | तने को पकड़ने और इस प्रकार झटके से छोड़ने के कारण ही शायद पुष्प की सबसे निचली सतह में वास करने वाले वे हरे पीले जल-जंतु , जो आकार में उसके गुरुकुल के खट्टे इमली वाले पौधे के इर्द-गिर्द बड़ी ही मौज से टहलने वाले बड़े बड़े लाल मकोडों से कुछ ही छोटे लग रहे थे एक सीधी रेखा में बड़ी हडबडाहट के साथ प्राण-रक्षा हेतु तट की और भाग लिए | मनुष्य जान गया कि यह सब उसके पुष्प को उखाड़ने के प्रयास के कारण हो रहा है..तभी उसकी दृष्टि उस हरे वर्ण के..शायद धानी हरे वर्ण के एकमात्र जीव पर पड़ी ..जो तट की ओर भागते हरे पीले जीवों से एकदम विपरीत दिशा में भाग रहा था | अपने साथियों से टकराता हुआ .वह उस पूरी पंक्ति में पुष्प की ओर भागता जीव उस समय सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण लगा था ..पहले उसे लगा कि संभवतः इस प्राणी के अपने परिवार का कोई सदस्य ही विवश मूर्तिकार द्वारा नव-निर्मित विपदा में घिरा हुआ है.. . किन्तु ध्यान से देखने पर ज्ञात हुआ कि विपरीत दिशा में भागने वाले इस धानी हरे जीव ने एक बार भी अपने बराबर में तट की ओर भागते हरे पीले जीवों को देखने का प्रयत्न नहीं किया था...उसकी दृष्टि में कोई खोज नहीं थी ..किन्तु उसके भागने में एक विचित्रता थी | तट की ओर प्राण बचा कर भागते हरे पीले प्राणियों को तो तट दिख रहा था ..किन्तु इस अलौकिक पुष्प की सबसे निचली सतह की ओर भागते इस धानी आभा लिए जीव को ऐसी आपदा के समय क्या दिख रहा था..???

                          इस समय तक मनुष्य की दोनों आँखों की पुतलियाँ बहुत ऊपर उठ चुकीं थीं ..इतना ऊपर कि  कुछ रहा ही नहीं था कि उसकी दृष्टि किसी वस्तु तक जाती एवं किसी वस्तु पर वापस लौटती | सदा ही अपने सृजन-काल में वह इस प्रकार की अनुभूतियों के संपर्क में आकर ..उन्हें अपने ही द्वारा निर्धारित की गयी सीमाओं की सीमा में से ही छूकर लौट आता था ..किन्तु  आज एक पुष्प का विनाश करते समय न जाने किस अज्ञात के वशीभूत हो इस पूर्ण-अनुभूति तक पहुँचने के लिए उत्सुक हो गया था .. इस अंतिम समय उसके भीतर एक कामना अवश्य उपजी थी कि वह अनन्या से अपना सारा जीवन, अपनी सारी मनोस्थिति कह पाता ..... किन्तु ......
                        जल पूर्णतयः प्राकृतिक ही होता है..चाहे वह यक्ष-प्रदेश महा यक्षिणी अनन्या हेतु बने सरोवर का हो.या .मोक्ष दायिनी गंगा का अथवा गुरुकुल के पिछवाड़े में बहते नाले का ... जल अपना एक कार्य तो वह पूर्णतः प्राकृतिक रूप से ही करता है. .मूर्तिकार का मृत शरीर इस समय महा सुन्दरी अनन्या की मृतप्राय निश्चल दृष्टि एवं कमल पुष्प के जीवंत निश्छल स्पर्श के मध्य सरोवर की सतह  पर  बिना किसी प्रयास के पड़ा था ..किन्तु उसकी मोक्ष को प्राप्त होती आत्मा के शांत होते ह्रदय में जाने  कैसे वह एक अंतिम धडकन ठीक वैसा ही वातावरण बना रही थी जैसा उसके हाथों ने इस अलौकिक पुष्प को तोड़ते समय बना दिया था 


             पुष्प की ओर भागता गुरुकुल में पाए जाने वाले लाल मकोडों जैसा वह धानी हरा जीव भी अब पुष्प की निचली साथ की ओर भागता-भागता एकाएक ठहर गया था एवं अपनी कोमल पीठ पर रखा शीश..जो उसके कुल शरीर से बहुत अधिक था...ऊपर उठाये हुए मनुष्य को कृतज्ञता भरी दृष्टि से देख रहा था    


समाप्त  
    


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