हक-परस्ती ज़ीस्त का उनवां हुई किस दौर में
भाई-बंदी फितरते-इन्सां हुई किस दौर में
आसमां छूने लगीं हैं मुर्दा-तन की कीमतें
ये मेरी जिंदादिली अर्जां हुई किस दौर में
कितनी वजहें पूछती हैं मुझसे जीने की वज़ह
जिंदगी, तू भी मेरी जानां हुई किस दौर में
इक सिफ़र के ही सफ़र में गुम हुए आलम कई
दिल की हर उलझन हमारी जां हुई किस दौर में
था अभी तो वक़्त, उठने थे अभी परदे कई
अक्ल अपनी देखिये, हैरां हुई किस दौर में
सब बराबर हो चला अब तौलने को कुछ नहीं
मेरी सौदागर नज़र मीजां हुई किस दौर में
क्यूं ग़ज़ल की तंगदस्ती का ग़िला आशिक करे
गुफतगू माशूक से आसां हुई किस दौर में
8 comments:
Sabhee ashaar umda hain!
बहुत दिनो बाद एक नायाब गज़ल से रूबरू कराया आपने ब्लॉग जगत को। दिल की गहराई से निकले हर इक शेर हद उम्दा बन पड़े हैं। इस गज़ल में जहां एक ओर वर्तमान दौर के विसंगतियों का सफल चित्रण हैं वहीं दर्द और ज़ख्म से पैदा हुआ आक्रोश साफ झलकता है।..दुबार फिर पढ़ूँगा इसे कल छुट्टी में..इतमिनान से। अभी तो मेरी बधाई स्वीकार करें।
कितनी वजहें पूछती हैं मुझसे जीने की वज़ह
जिंदगी, तू भी मेरी जानां हुई किस दौर में
kamaal....bade zamane baad ek ghazal likhee gayee is daur men....:)
आसमां छूने लगीं हैं मुर्दा-तन की कीमतें
ये मेरी जिंदादिली अर्जां हुई किस दौर में
इक सिफ़र के ही सफ़र में गुम हुए आलम कई
दिल की हर उलझन हमारी जां हुई किस दौर में
कितनी वजहें पूछती हैं मुझसे जीने की वज़ह
जिंदगी, तू भी मेरी जानां हुई किस दौर में
क्यूं ग़ज़ल की तंगदस्ती का ग़िला आशिक करे
गुफतगू माशूक से आसां हुई किस दौर में
chaliye ab to kai wajahen hui ,
ek naayab gazal likhne ki is daur me ............:):)
इक सिफ़र के ही सफ़र में गुम हुए आलम कई
दिल की हर उलझन हमारी जां हुई किस दौर में
मनु भाई , इतनी गहरी बात को आपके सिवाय कोई और न लिख सकता था ... दिल से बधाई स्वीकार करे. पूरी गज़ल एक नायब तोहफा है ...
विजय
क्यूं ग़ज़ल की तंगदस्ती का ग़िला आशिक करे
गुफतगू माशूक से आसां हुई किस दौर में
waah waah umda sher
नव वर्ष मंगलमय हो।
वंदना जी की पोस्ट पर आपकी टिप्पणी पढ़कर आपका ब्लॉग देखने आ गये। आपकी टिप्पणी के शेर ने ख़ासा प्रभावित किया।
यह कलाम भी अच्छा है।
Post a Comment