बे-तख़ल्लुस

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'बेतख़ल्लुस' हूं मुझे कोई भी अपना लेगा

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Sunday, December 13, 2009

मटमैले लबादे वाला सान्ताक्लोज़




आज ऑफिस से ही उमा को फोन कर दिया है हमेशा की तरह| पुरानी हिदायतें जो बरसों से दोहराता आ रहा हूँ, फिर समझा दी हैं के बच्चों की जुराबें खूब अच्छे से धोकर जैसे भी हो रात तक सुखा ले| टॉफी-चाकलेट वगैरह मैं ख़ुद ही लेता आऊंगा| आज क्रिसमस है ना? उनके बहुत छुटपन से ही सांताक्लोज़ के नाम से और बहुत से पिताओं की तरह मैं भी उनकी मासूम कल्पना को उड़ान देता रहा हूँ| सुबह दोनों पूछते है आपस में एक दूसरे से कि क्या रात को उसने किसी सान्ताक्लोज जैसी चीज का घर में आना महसूस किया था या नहीं| पर हमेशा की तरह किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाते और अपनी अपनी चाकलेट और टॉफी खाने जुट जाते हैं बगैर पेस्ट किए| कभी भी तो ये सोचना नहीं चाहते के रात को थका-हारा इनका बाप ही ये सब अपने मटमैले से लबादे में से निकाल कर ठूंसता होगा उस दिन की स्पेशल से धुली जुराबों में| इनकी कल्पना में तो आज भी वो ही सुर्ख लाल लबादे वाला सांता क्लॉज बसा है| पहले तो हम भी इस बैठक में शामिल होते थे, इनकी कल्पनाओं में अपने भी रंग भरने के लिए ....हाँ रात को कुछ आवाज सी सुनी तो थी पर दिखा कुछ नहीं था, सांता क्लोज ही रहा होगा और भला इत्ती रात में कौन आएगा तुम लोगों के लिए ये गिफ्ट लेकर| पर अब भीतर उदासीनता सी हो गयी है इस ड्रामे के प्रति| अब ये बचपना ही चिंता का कारण हो गया है| आख़िर आठवीं-दसवीं क्लास के बच्चों का सान्ताक्लोज से क्या काम| क्या अब इन्हें थोड़ा समझदार नहीं हो जाना चाहिए? टॉफी-चाकलेट तो यूँ भी खाते रहते हैं पर क्या आज के दिन ये उतावलापन शोभा देता है इतने बड़े बच्चों को? जीवन की बाकी सच्चाइयों को किस उमर में जानना शुरू करेंगे फिर| अब तो ध्यान जब तब इनके साथ के और बच्चों पर जाने लगा है| अकल भी अब मसरूफ रहती है जिस्मानी उठान और समझ के बीच ताल मेल बैठाने में| कभी इनके स्कूल का कोई और बच्चा घर आ जाता है तो आँखें ख्यालों के साथ मिलकर उसकी समझदानी का साइज़ समझने बैठ जाती है| पता नहीं स्कूल में ये लोग सांताक्लाज के बारे कोई बात करते हैं या नहीं? हो सकता है के इन दिनों पड़ रही छुट्टियों के कारण इस विषय पर चर्चा न हो पाती हो ...वरना इतने बड़े बच्चे और ऐसी बचकानी..| कई बार चाहा है के ख़ुद ही इन्हें रूबरू करा दूँ सच्चाई से पर जाने क्यूं ये भरम इस तरह नहीं तोड़ना चाहता| इनके विकास को लेकर मन का ज्वार-भाटा बढ़ता ही जाता है| अखबारों में निगाहें अब बाल-मनोचिकित्सकों के लेख ही तलाशती रहती हैं| आई क्यू., ई क्यू. ऐसे 'क्यूं' वैसे 'क्यूँ' कुछ समझ नहीं पाता| कद के साथ बढ़ता बचपना दो तीन साल से हताशा को और बढ़ा ही रहा है| कई बार ख़ुद को दोषी पाता हूँ कि शायद मैं ही स्वार्थवश बाल्यावस्था को समुचित रूप से....| हमेशा जुराबों से चाकलेट निकालते समय मेरी आँखें इनके चेहरे पर गड़ी होती हैं, बस एक नज़र इनकी बेएतबारी की दिख जाए तो कुछ सुकून मिले, कभी तो एहसास कराएँ मुझे बड़े होने का| कैसे जानें के मटमैले लबादे वाला इनका सांताक्लाज अब कैसा बेसब्र है इनकी उम्र का भेद जानने को|

आज तो आफिस में ही काफ़ी देर हो गयी है| बाहर आया तो देखा के बाज़ार भी बंद हो चला है| इलाके की बत्ती भी जाने कब से गुल है| चाल काफ़ी तेज हो चली है, निगाहें तेजी से दायें-बाएँ किसी खुली दूकान को तलाश रही हैं....दिल बैठ रहा है ..अब कि शायद आँगन में टंगी चक-दक धुली सफ़ेद जुराबें बस टंगी ही रह जायेंगी...क्या ऐसे टूटेगा मासूमों का भरम ...क्या गुजरेगी बेचारों पर...? बेबस सा आख़िर में आफिस के उस अर्जेंट काम को ही कोसने लगा हूँ| इसके अलावा और कर भी क्या सकता है एक मटमैले लबादे वाला| सुबह उसे एक अलग ही रूप लिए जगना होगा अब की बार| मन के भीतर किसी छोटे से कोने मैं इसकी भी रिहर्सल चल रही है| इन सब के बीच नज़र में किसी थकी हुई सी लालटेन की धुंधलाती रौशनी आ गयी है| मुझ से भी ज्यादा थका सा लग रहा कोई दूकानदार अपनी दूकान बढ़ाने को तैयार है शायद "ज़रा एक मिनट ठहरो......!!" कहता हुआ थका हारा सान्ताक्लोज दौड़ पडा है इस आखिरी उम्मीद की तरफ़| इसी उम्मीद से तो बच्चों का वो भरम बरकरार रह सकता है जिसे वो कब से तोड़ना चाहता है| जल्दी से जेब से पैसे निकाले और उखड़ी साँसों पे लगाम लगाते हुए दोनों बच्चों के फेवरिट ब्रांड याद करके बता दिए हैं| दूकानदार किलसने के बजाय खुश है| और एक वो है के आफिस से निकलते-निकलते एक अर्जेंट काम के आने पे कितना खीझ रहा था| बमुश्किल दस-पन्द्रह कदम दौड़ने पर ही साँसें कैसी उखड़ चली हैं| दुकानदार ने सामान निकाल कर काउंटर पर सजा दिया है| चॉकलेट के गोल्डन कलर के रैपर कुछ ज़्यादा ही पीलापन लिए चमक रहे हैं| शायद लालटेन की रौशनी की इन्हें भी मेरी तरह आदत नहीं है| मैंने सामान उठा कर लबादे में छुपाया और घर की तरफ़ बढ़ गया| तेज़ रफ़्तार चाल अब बेफिक्र सी चहल कदमी में तब्दील हो गई है| अब कोई ज़ल्दी नहीं है बल्कि अच्छा है कि बच्चे सोये हुए ही मिलें|
मेरा अंदाज़ा सही निकला | दोनों बच्चे नींद की गहरी आगोश में सोये हैं.....एकदम निश्छल, शांत....दीन-दुनिया से बेफिक्र| मैं और उमा खुले आँगन में आ गए हैं, बाहर से कमरे की चिटकनी लगा दी है ताकि किसी बच्चे की आँख खुल भी जाए तो हमारी इस चोरी का पता न चल सके| मोमबत्ती जला कर हमने धुली जुराबों में बच्चों की पसंद के अनुसार सौगातें जचा-जचा कर रखना शुरू किया| जुराबों में हल्का सीलापन अब भी है जो की रात भर आँगन में टंगे-टंगे और बढ़ जाएगा मगर रैपर बंद चीज़ों का क्या बिगड़ता है|
सुबह आँखें लगभग पूरे परिवार की एक साथ ही खुली| दोनों बच्चों ने भरपूर उतावलेपन से अपनी-अपनी रजाइयां फेंक दी और कुण्डी खोल के खुले आँगन में लपक लिए बगैर जाड़े की परवाह किए| दोनों जोशीले तार में लटकी-उलझी अपनी-अपनी जुराबें खींच रहे हैं भले ही उधडती-फटती रहें, उनकी बला से| उन्हें क्या फर्क पड़ता है| उन्हें तो बस सांताक्लोज के तोहफों से मतलब है हमेशा की तरह| बेकरारी पूरे शबाब पर है .....चक-दक जुराबों में तले तक पैबस्त उपहारों को उंगलिया सरका सरका के पट्टीदार दहानों से उगलवाया जा रहा है| सान्ताक्लोज की नेमतें सोफे पर टपक रही हैं मगर आज बच्चे इन्हें अजीब सी नज़रों से देख रहे हैं| जाने उपहारों में आज ऐसा क्या खुल गया है कि इनके चेहरे पर उत्साह के रंग मायूसी में बदल गए| सबसे पहले तो ज़रूरत से ज्यादा पीलापन लिए गोल्डन कलर की जांच हुई और फिर पारखी नजरें प्रोडक्ट की स्पेलिंग चेक करती हुई नीचे लिखा अस्पष्ट मैनुफक्चारिंग एड्रेस समझने लगीं| मेरे कुछ समझ पाने से पहले ही दोनों अपनी अजीब सी शक्लें बनाते हुए और भी ज्यादा बचपने में भर गए ........

"पापू....!! ये क्या ले आए......?...डुप्लीकेट है सारा कुछ..!! ये टॉफी भी ...."
"हाँ .. पापू..! मेरे वाला भी बेकार है एकदम से ...!!"
"आप भी ज्यादा ही सीधे हो ..बस..कोई भी आपको बेवकूफ बना दे...हाँ नहीं तो .."
"आज के बाद उस दूकान पे आप ...!!!!"

बच्चे अचानक संभल गए| गोल-गोल आँखें मटकाती दो शक्लें, दांतों के तले दबी जीभ.. | इस अचानक की पर्दाफाशी से मैं भी हैरान हूँ | दोनों दबी-दबी मुस्कान लिए, मुझसे आँखें बचाते हुए अपनी-अपनी चाकलेट का ज़रूरत से ज्यादा पीला रैपर उतार रहे हैं| एक बार फिर नजरें उठ कर मिली हैं और अब कमरे में ठहाके फूट चले हैं....बच्चों के मस्ती भरे और हमारे छलछलाई आंखों से..!!
बच्चे अभी छोटे हैं शायद ..हमारा ये भरम टूट चुका है..बिलंग्नी पर टंगे मटमैले लबादे से कहीं कोई सुर्ख लाल रंग भी झांकता दिख रहा है..|

18 comments:

vijay kumar sappatti said...

manu bhai ... main ye post par kya kahu.. main khud apne baccho ke liye 13 saal se sata clause banta hoon .. lekin aapne jis tarah se ek pita aur baccho ke manovigyaan [ ek dusare ke liye ] ko darshaya hai ... wo amazing writing hai .. maine bahut dheere ek ek shabd padha.. laga kuch meri hi gaatha hai ,jise aapke shabd mil gaye hai .. bus ek fark hai .. mere baccho ko abhi tak yenahi malum ki unka sataclause " main" hoon.. wo ab bhi socks rakhte hai apne pillows ke neeche aur subah mujhse pahle uth kar apne gifts dekhte hai aur phir mujhe batatte hai .......

anyway .. main dil se aapko badhayi doonga itni shaandar physcological- behaviour pattern par likhi gayi is racha par...

aur haan ,ek do jagaha aankh nam ho gayi...kuch yaad aa gaya ..shayad mera bachpan..jise koi santa kabhi nahi mila....

manu said...

sapatti ji,
kyun apnaa bachpan yaa karte hain aap...?

agar hamaare aapke pitaa ko bhi santaa ki kahaani ka pataa hotaa....to wo bhi bante....

ye kahaani 1 saal pahle likhi thi..aur hind yugm pe chhapi thi..
khai.......

badaa gandaa lag rahaa hai..apni hi post par....
apnaa comment...
ROMEN mein karte huye....

wo bhi shayad anaam.....!!!!

ha ha ha ha ha ha ha ha ...........

manu said...

shukr hai..
aaj anaam nahi huaa.....

aaj mail ka option aa gayaa thaa..
:)

मनोज कुमार said...

अच्छी लगी रचना।

Arvind Mishra said...

bhaavpoorn magar rochak bhee.....

स्वप्न मञ्जूषा said...

जीवन में अक्सर खुशियाँ अनजान बने रहने में ही मिलती हैं..वर्ना सच इतना वीभत्स होता है की सामना करना कठिन हो जाता है...
आपकी कहानी बहुत ही भावपूर्ण लगी...शब्दों का अच्छा ताना-बाना बुना है...हम भी महसूस कर पाए बच्चों और उमा जी के साथ आपकी वो क्रिसमस ...
बहुत बहुत बधाई....एक बहुत अच्छी कहानी के लिए....

निर्मला कपिला said...

अपकी कहानियाँ तो गज़लों को भी मात देने पर तुली हैं । एक एक शब्द को गहरी संवेदना से बुना है ।मैं तो इसे कालजयी रचना ही कहूँगी। शुभकामनायें

नीरज गोस्वामी said...

मनु जी मेरी बधाई स्वीकार कीजिये इस विलक्षण कहानी पर...इसके शब्द और भाव..पाठक को बहा कर ले जाते हैं कहीं उसे खिलखिलाने पर मजबूर करते हैं और कहीं आँखें नम कर देते हैं...कमाल का लिखा है आपने...बधाई...
नीरज

daanish said...

क़रीब क़रीब हर माँ-बाप ही
अपने बच्चों के लिए
संता क्लोज़ ही होता है ....
ये बात अपनी जगह है....
लेकिन आपकी कहानी
कुछ अलग-सा प्रभाव ले कर आई है ....
शब्दों की बुनावट और कहा गया 'पात्र'
पढने वालों को अपने साथ लिए फिरता है
हर जगह हम अपने आप को खडा पाते हैं
और ये सब आपकी लेखनी का कमाल है जनाब !!
एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण,,,मनु की ज़बानी...
वोही............उफ्फफ्फ्फ़ !!

दर्पण साह said...

इनकी कल्पना में तो आज भी वो ही सुर्ख लाल लबादे वाला सांता क्लॉज बसा है|

manu ji kalpna wakai vastvikta se behtar hoti hai...
"मिट्टी...
...मेरे गले लग के रोती रही
बचपन तक !

खेलती रही..
..मुझसे !
मेरे बड़े होने तक !!

उसकी नमी..
जब आँखों ने सोखी...
..तो सोच की ऊँगली पकड़..
उड़ते -उड़ते...
पहुँच गई..
परियों वाले चाँद तक ।



वो विज्ञान था...
या दानव ?

च च्च च्च्च !!
परियाँ , मिट्टी, सोच, और बचपन !!"

apna haal bhi aisa hi hai ki...
जीवन की बाकी सच्चाइयों को किस उमर में जानना शुरू करेंगे फिर|


..Bachpan se hi sunte aaiye hain ab to bade ho jao.
par Yaad nahi bachpan kab tha?
कुछ बच्चे....
बच्चे रहते हैं,
देर तक.


तब तक तो,
उनकी...
...टोफियाँ,
और खेल भी....
बूढे हो जाते हैं...
... पक जाते हैं।



बच्चे...
देर लगाते हैं,
...या फ़िर,
खिलोनों को...
ज़ल्दी है...
...बड़ा होने की?


soch raha hoon ki kya 'Dukaandar' ko zaldi nahi us labade main ghusne ki?
tabhi to use koi koft nahi thi dukkan main aapke aa jane se. Chalo kuch aur bikri hui.

WOW !!
Sacchai ka pata tha unhein, maine kaha tha na ki bacche zaldi bade ho jate hain, par der tak bacche hi bane rehna chahte hain, jaan kar bhi anjaan.


Main phir keh raha hun ki aap seriously koi kitab likhne ki sochein. Aaj khule manch ke madhyam se.

दर्पण साह said...

बच्चे अचानक संभल गए| गोल-गोल आँखें मटकाती दो शक्लें, दांतों के तले दबी जीभ.. | इस अचानक की पर्दाफाशी से मैं भी हैरान हूँ |

Waise aapko hairaan nahi hona chahiye tha pardafashi se,

Main to hairaan hoon ki bachon ne ant main bachpana kar diya Nahi to kabhi pakde nahi jaate.
;)

गौतम राजऋषि said...

ब्लौग-जगत में अभी तक की पढ़ी गयी श्रेष्ठ कहानियों में से एक रखूँगा इसको और ये गिनती बस गिनी-चुनी है।

सोच रहा हूँ अब इसे दोबारा पढ़ लेने के बाद{पहली बार तीन दिन पहले पढ़ लिया था) कि इस अनूठे प्लाट का विचार मिला कहाँ से आपको।

...और ये सोचने के बाद ऊपर सपत्ति जी के कमेंट पर आपका वो प्रत्युत्तर वाला कमेंट पढ़कर अब मुस्कुराये जा रहा हूँ।

Pritishi said...

"You too, Brutus!"

:-) :-)

Aap boojhiye is tippani ka matlab ... tab tak main aapki kahani per tippaniyaan lekar haazir hoti hoon :)

God bless,
RC

Pritishi said...

bahut khoobsoorat likha hai, Manu ji !

Merry Christmas !

neelam said...

kahaani to ek saal pahley hi padhi thi ,aur aapka parichay bhi apne papa se isi kahaanikaar ke taur par hi karwaaya tha ,is baar chitr par dhyaan gya hai ,bahut hi behtareen chitrkaari bhi par ye roman me likhne waali baat wali tippni samajh me nahi aayi ,aur aadatan humne phir se roman me hi likhdiya hai ,ummeed hai ki aap anyatha nahin lenge .

Ria Sharma said...

hmmm ye kahani ..jab pahlii baar padhe thee..Yugm par...tabhii se aapkee kalam kee pahchaan pata chalii thee mujhe Manu ji...:))

jabardast pakad !!

Sarika Saxena said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति!

Unknown said...

ye to mere bachchon ki kahani hai ....... aapko maine kab sunaai :)
phir bhi bahut achchha lag rahaa hai ki mere jaise aur sab bhi hain :)