बे-तख़ल्लुस

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'बेतख़ल्लुस' हूं मुझे कोई भी अपना लेगा

manu

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Monday, February 9, 2009

आदत

कल परसों की बात......चला जा रहा था यूँ ही कहीं...मोबाईल फोन कानो से लगा था...किसी अजीज से बात करता जा रहा था.....रास्ता एक दम सुनसान था.....ना कोई आदमी , न बस्ती...ना कोई मुहल्ल्ला ...बस सुनसान राह...एक दम अकेली ..वीरान..सुनसान.......... बस मेरे और मेरे दोस्त के अलावा ( बल्कि वो दोस्त भी तो फोन पर ही था.)...उस वीराने में एक आदमी टमाटर की रेहडी हांके जा रहा था...जोरों से चीखता........
"टमाटर ले लो...........टमाटर वाला..........""
लाल रंग के देसी टमाटर ...कहीं हल्का सा हरा -पीला पॅन लिए मुझे वो स्वाद याद दिला रहे थे जो के होता है इन देसी टमाटरों में...एकदम खालिस ...देसी खट्टापन लिए.....के गाजर आलू की सब्जी में दो छोटे टमाटर काट पीस के डाल दो ...और सब्जी जायकेदार......अक्सर ये गाजेर वाली सब्जी अपने ही मिजाज के हिसाब से स्वाद या बे स्वाद बनती है.....बनाने वाले का कोई खास महत्त्व नही होता चाहे कितना ही जोर लगा लिया जाए......जैसी इसने बनना होता है....वैसी ही बनती है............पर अगर ये देसी टमाटर इस में पड़ जाए तो...कुछ उम्मीद सी बाँध जाती है ....के उतनी ख़राब तो नही बनेगी....जितनी बन जाती है ...आमतौर पर... खैर............उसकी बा बुलंद आवाज़ से मैं कुछ डिस्टर्ब सा हुआ फोन पर....मैंने उसे कहा......
" अमा यार , क्यूं चिल्ला रहे हो गला फाड़ फाड़ के...थोडा आराम से....धीरे...से.. ओ .के ...."
दोस्त शायद समझ चुका था हमारी बातें...........तो बोला....
"उसकी रोजी-रोटी है मनु....ऐसे क्यूं बोल रहे हो बेचारे को........? "
मैंने कहा के यार ना तो तुमसे बात करने दे रहा है...खामख्वाह चीख रहा है.....तुम तो दूर फोन पर हो...पर मुझे पता है के....जहाँ खडा हो कर ये चिल्ला रहा है..वहाँ न तो कोई गली मुहल्ल्ला है ...ना बस्ती...ना आदमी ..न आदमी जैसा कुछ और...........जिसे इन देसी टमाटरों से कोई लेना-देना हो ....इसलिए टोका है इस को....... 

" और तुम क्या कर रहे हो.............?????" जहाँ पर तुम इतने दिन से अपना गला फाड़ फाड़ कर चीख रहे हो......? वहाँ पर कौन है सुन ने वाला...??कौन सी आदमियों की बस्ती है ...? कौन सा मोहल्ला है....? कौन है जो तुम्हें सुन रहा है....? पर ठीक है ....आदत हो जाती है यूँ चीखने की......जैसी तुम्हें है ...ऐसी ही इसे भी होगी....."

टमाटर वाला मुझे सुनकर चुप लगा गया था... और मैं अपने दोस्त की बात सुन कर खामोश हो गया था........... दोनों ही शायद सोच रहे थे...के हम क्यूं चीख रहे हैं.........और कहाँ चीख रहे हैं................. सन्नाटा और भी सुनसान हो गया था.......वीरानी ..पहले से भी ज़्यादा वीरान हो चली थी....

हां,........ज़रा दूरी से गुजर रही,,,,,कोई हैरान सी ,मायूस सी...कविता जरूर देखे जा रही थी .......हल्का सा हरापन लिए ..लाल-लाल देसी टमाटरों को.......

8 comments:

Alpana Verma said...

बहुत सही लिखा..अक्सर लोग आँखें होते अंधे और कान होते बहरे हैं...समाज का यह भी एक कड़वा रूप है..
और अदातन लोग हैं की आवाजें उठाये जाते हैं --शायद किसी उम्मीद के सहारे??

neelam said...

umeed par to duniya kaayam hai,

tamaatar wala chup ho gaya ,aap bhi chup ho gaye kuonki ,
wo aapke antarman ki hi aawaj thi ,

himaat mat haariye ,magar beja chillane se log kuch bhi nahi samajhte .

buland housle hi manjil ka pata ete hain ,

kisi ne kaha bhi hai ,shaayad aapne bhi suna ho ki ,
actions are louder than words .

गौतम राजऋषि said...

..और मैं इस चीख में ढ़ूंढ़्ता रहा एक हैरान सी मयूस सी कविता को,वो कविता जो उसी वक्त बनी और मुझे लगा कि पोस्ट के अंत में कविता भी मिलेगी....अपने हल्के से हरेपन में,किंतु लगता है उसके लिये अगले पोस्ट की प्रतिक्षा करनी पड़ेगी....!!!!!!!!!

Saleem Khan said...

अच्छा लगा, दोस्त के कहने पर या अंतर्मन की आवाज़ पर, आपका चीख़ने के बाद की ख़ामोशी मुझे भी कुछ सोचने पर मजबूर कर गई |

ख़ैर, कुछ भी हो, मुझे तो अपने गाँव का वो घर याद आ गया जिसके बागीचे में मेरी अम्मी, सब्जियों के साथ-साथ टमाटर भी उगाया करती थीं और मैं चुपके से वहां जा कर पके टमाटर तोड़ कर खा लेता था ! लाज़मी था शक की सुई हमेशा की तरह मेरी तरफ़ जाती और मार पड़ती, लेकिन हमेशा नहीं जब मैं कुछ आखिरी बचे टमाटरों पर अटैक करता था | मुझे याद है कि अम्मी कहा करती थीं - सलीम, अगर तुम्हें टमाटर खाना ही होता है तो सामने खाया करो, यूँ छुप छुप कर खाना तो चोरी होता है, बेटा !

Shamikh Faraz said...

manu ji aap jo bhi likhte hain gazab hi likhte hain

दर्पण साह said...

//Matlab jo samjhe mere sandesh ka.....

Is desh main hai kya koi mere desh ka ?//


Waise agar aap ye kissa post na karte to apke naam se ye zald hi post hone wala tha (kahan aur kyun ye aap jante hain....)
:)

नीरज गोस्वामी said...

होली की शुभ कामनाएं.

नीरज

स्वप्न मञ्जूषा said...

हां,........ज़रा दूरी से गुजर रही,,,,,कोई हैरान सी ,मायूस सी...कविता जरूर देखे जा रही थी .......हल्का सा हरापन लिए ..लाल-लाल देसी टमाटरों को.......
hnm....

रोकना था न उस कविता को...
बहुत ही अच्छा लिखा है, खूबसूरत......