दुनिया की पहली औरत हव्वा..
पहली औरत जो...
खुदा का शौक थी, शैतां का प्यादा
अजल से खेल बस, औरत की जां थी..
दुनिया..
जो मेरे लिए शायद एक बार फिर से पहली थी..सुनने में आया था कि किस्म किस्म की किताबें पढ़ कर सयाने बन चुके लोग, लोगों के ज़हन में हव्वा की एक तस्वीर बनाए हुए हैं..पढ़ी गयी किताबों के हिसाब से ...
सिर्फ लिखे हुए को ही सब कुछ समझ लेते हैं लोग बाग़ ..किस किस्म के लेखक ने लिखा है सब..किसी को भी क्या मतलब हुआ है कभी...
नाश की जड़, नरक का दरवज्जा. ऐसे ही जाने कितने नामों अब तक से नवाजी गयी हव्वा...जिसके तन पर जाने कहाँ से एक शर्ट पेंट हो गयी थी मुझसे..सोचा तो खूब ही था उस पल..कि ये तो हव्वा जैसी तो कहीं से भी नहीं लग रही उस लाल कमीज़ में...
कमीज़...
जिसे पेंट करने की वजह ..दिल और दिमाग का कैसा भी डर नहीं था ब्रश पर...हजामत किये जाने वाले बाल और उनसे सटे दांतों की हर जद्दो ज़हद तक से शायद वो लाल कमीज़ अनजान थी..या कहें तो बेपरवाह थी ...(लापरवाह नहीं...बेपरवाह..) ....बेपरवाह थी...
कमीज़...
जिसे पेंट करने की वजह कोई भी धार्मिक-अधार्मिक, शारीरिक-अ_शारीरि...ओह शिट.....
उस खाब पे लहरा के उठे जिस्म भी जां भी
जिस खाब से दोनों ही पशेमां थे अगरचे..
हाँ..
धर्म,देश,काल,समय,जात,वर्ण, मतलब-मकसद, सत्ता-कुर्सी.....
यानी किसी भी उल जुलूल फतवे का कोई डर हावी नहीं था....पास का और दूर का चश्मा बारी बारी से चढ़ा कर देखा भी था...
दोनों ही से सिर्र्फ लाल रंग ही तो झलका था...कोई भी रेखा कहाँ नजर आई थी...दोनों ही से...