एक नयी ग़ज़ल लेकर हाज़िर हैं...जो नेट कि मेहरबानी से किसी तरह पोस्ट हो जाए तो...
बढ़ा दी हैं मेरी गर्दिश ने जिम्मेदारियां मेरी
कहाँ हैं अब किसी के काम की नाकामियां मेरी
नज़रिया इन दिनों कैसा है उनका क्या बताऊँ, अब
खटकती ही नहीं उनकी नज़र में खूबियाँ मेरी
खुदा जाने कि मेरी मुश्किलों से वो रहा ग़मगीं
कि उसके ग़म से अफसुर्दा रहीं दुश्वारियां मेरी
किसी की चाल है या है चलन इस दौर का ऐसा
चले हैं हट के मेरे तन से अब परछाइयाँ मेरी
समझना था सभी ने अपने अपने ढंग से मुझको
समझ कर भी समझता क्यूँ कोई खामोशियां मेरी
हिसाबे-उम्र, इस दिल पर अभी बचपन बकाया था
अगर करती नहीं मुझको बड़ा मजबूरियां मेरी
करेंगे रंग वो बेबाक सा कुछ अब के चिलमन का
कि उस चिलमन पे शा'या हो चलीं बेबाकियां मेरी