दो जुलाई,
आज से ठीक एक साल पहले हिंद-युग्म पर अपनी एक ग़ज़ल आई थी....जिसका मतला था..
शोला-ऐ-ग़म में जल रहा है कोई,
लम्हा लम्हा पिघल रहा है कोई ..
उन दिनों दिमाग कुछ ज्यादा ही हवा में रहने लगा था...ठीक उसी दिन कुछ ऐसा हुआ कि हमने अपनी जॉब ही छोड़ दी ...हालांकि उस वक़्त जॉब छोड़ कर एक सुकून भी मिला ...लेकिन साथ ही मंदी के दौर में नयी जॉब और पेट पालने की फ़िक्र भी हुई..भरी दोपहरी ही उस दिन घर वापस आ गए थे हम...किसी से कुछ कहा नहीं..बस आकर ऊपर वाले रूम में कंप्यूटर ऑन कर के बैठ गए..हिंद-युग्म खोल कर देखा तो अपनी ये ग़ज़ल वहाँ छपी हुई थी..देखकर कुछ ठीक सा महसूस हुआ..
उसी पर नीचे एक कमेन्ट पर नज़र पड़ी...( इसे कहते हैं एक कामयाब ग़ज़ल....)
वाह रे हमारी उस दिन की बेबसी...और ये प्यारा सा कमेन्ट...
उस वक़्त एक शे'र हुआ...जो आगे ग़ज़ल की शक्ल में ना ढल सका...
हर ग़ज़ल कामयाब है उसकी
कितना नाकाम शख्स होगा वो
आज दिल किया ..ये ही अकेला शे'र आपसे साझा करने का...