वैसे तो मतले कहाँ बनते हैं ,,,,
पता नहीं क्या हुआ के मतला ही बन के रह गया.....
बस ....
छाप ही दिया ...
कब से कुछ नहीं लिखा था...
कुछ न ईमां पर कहें , जो साहिबे-ईमां नहीं
लफ्ज़ आसां है मगर ये इतना भी आसां नहीं
क्यूं ख़याल अपने हों, फैज़-औ-मीर-ग़ालिब से जुदा
या तो वो कुछ और थे, और या हमीं इन्सां नहीं.