बे-तख़ल्लुस

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'बेतख़ल्लुस' हूं मुझे कोई भी अपना लेगा

manu

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Friday, May 22, 2009

मेरी निगाह ने वा कर दिए बवाल कई,
हुए हैं जान के दुश्मन ही हमखयाल कई

नज़र मिलाते ही मुझसे वो लाज़वाब हुआ,
कहा था जिसने के, आ पूछ ले सवाल कई

उलट पलट दिया सब कुछ नई हवाओं ने,
कई निकाल दिए, हो गए बहाल कई

कहीं पे नूर, कहीं ज़ुल्मतें बरसती रहीं,
दिखाए रौशनी ने ऐसे भी कमाल कई

है बादे-मर्ग की बस्ती ज़रा अदब से चल,
यहाँ पे सोये हैं, तुझ जैसे बेमिसाल कई

Monday, May 4, 2009


दोस्तों, हिंद युग्म पर छपी ये ग़ज़ल आज पोस्ट कर रहा हूँ,,,, हम अल्मोडा जा रहे थे और इस जगह हमारी बस खराब हो गयी थी,,, पहले के दो शेर इसी लैंड स्केप के साथ साथ हुए थे,,,,,


ये हरी बस्तियां महफूज बनाए रखना,
इस अमानत पे कड़े पहरे बिठाए रखना

अगले मौसम में परिंदे जरूर लौटेंगे
सब्ज़ पेडों को,kiसी तौर बचाए रखना

जिंदगी इन के बिना और भी मुश्किल होगी
सुर्ख उम्मीद के ये फूल खिलाए रखना

शब कटी है तो कभी आफताब चमकेगा
सुनहरी मछलियों पे जाल लगाए रखना

तेरी गफलत से न रह जाए कहीं राहों में
ख्वाब की फिक्र में आँखों को जगाए रखना


मिल गया मुफलिस जी का शेर,,,,,,,


रात गुजरी है , तो सूरज भी यहाँ चमकेगा


 
नूर की बूँद से धरती को सजाये रखना 


(उम्मीद भी आ गयी , पर्यावरण का पहलु भी )